Tuesday, December 29, 2009

सरकारी क्षेत्र के असरकारी कर्मचारी- भाग-२


आज के समय में सरकारी क्षेत्र के अ-सरकारी कर्मचारियों की संख्या में काफी इजाफा हो गया है और समय के साथ-साथ यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। इन अ-सरकारी कर्मचारियों की संख्या बढ़ने का एक और कारण देश में व्याप्त होता भ्रष्टाचार भी है जिसके चलते अधिकारी वर्ग अपने पद की प्रतिष्ठा और गरिमा बचा पाने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं इसका परिणाम यह होता है कि उनके अन्दर सत्य की शक्ति का अभाव होने के कारण वे अपने अधीनस्थों को किसी गलत काम को करने न तो रोक ही पाते हैं और न ही उन पर प्रभावी नियंत्रण ही रख पाते हैं। ऐसी स्थिति में अधिकारी बनाम कर्मचारी का युद्ध सदैव चलता रहता है। इस युद्ध की स्थिति में अधिकारी अपना एक विश्वासपात्र अ-सरकारी कर्मचारी नियुक्त कर लेता है और उससे वे सब सरकारी काम करवाता है जो कि उसे लगता है कि सरकारी कर्मचारी से करवाने से गोपनीयता भंग हो सकती है। मतलब तो आप समझ ही रहे होंगे।
कुछ-कुछ विभागों में तो यह देखा गया है कि अधिकारी अ-सरकारी कर्मचारी को नियुक्त करने को एक स्टेटस सिम्बल के रूप में देखते हैं। जैसे ही वे किसी कार्यालय में पहुंचते हैं वहां की अव्यवस्थाओं से खिन्नता जाहिर करते हुए अपने किसी अ-सरकारी आदमी को नियुक्त कर लेते हैं। सामान्यतया ये अ-सरकारी कर्मचारी उनके अति विश्वासपात्र होते हैं जिनके बलबूते वे अपनी सत्ता चलाते हैं।
कहीं-कहीं अधिकारी वर्ग इन अ-सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति मजबूरी में भी करते हैं। कई ऐसे कार्यालय भी हैं जहां विभागाध्यक्षों की लापरवाही, लोभ, सत्तालोलुपता, भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता के कारण अधिकारी-कर्मचारी सम्बन्धों पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। ऐसे कार्यालयों में अधिकारी कर्मचारी के नियंत्रण में नहीं रहना चाहते हैं। ऐसे में अधिकारियों को तब बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है जब उन्हें समयान्तर्गत किसी कार्य को पूर्ण करना हो या समय से कोई सूचना शासन को पहुंचानी हो। ऐसे अवसरों पर अधिकारियों को कर्मचारियों की बड़ी अनुनय-विनय करते देखा जा सकता है क्योंकि शासन की बैठकों में अधिकारी को ही उपस्थित होना होता है। इन विपरीत परिस्थितियों में ये अ-सरकारी कर्मचारी बड़े काम के मोहरे साबित होते हैं। अ-सरकारी कर्मचारी सरकारी कर्मचारियों की तुलना में सामान्यतया अधिक योग, कुशल, दक्ष एवं प्रशिक्षत होते हैं। सरकारी कर्मचारियों की तुलना में इनमें केवल अनुभव की कमी होती है जो कि धीरे-धीरे एक-दो साल में ये ग्रहण कर लेते हैं। कहीं-कहीं तो यह भी देखा गया है कि ये अ-सरकारी कर्मचारी सरकारी कर्मचारियों से भी ज्यादा असरकारी यानी कि प्रभावशाली स्थान बना चुके हैं। कई विभाग तो ऐसे हैं जहां का अधिकतम काम इन अ-सरकारी कर्मचारियों के भरोसे ही हो रहा है। अ-सरकारी कर्मचारियों की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता है।
ऐसा कहना सत्य नहीं होगा कि अ-सरकारी कर्मचारी केवल सरकारी धन के दुर्विनियोग के प्रयोजन से नियुक्त किये जाते हैं। बल्कि सत्य तो यह है कि इनकी नियुक्ति समय की जरूरत है और इससे सिस्टम को एक नया रूप मिला है। यदि सरकार इन अ-सरकारी कर्मचारियों पर कोई अध्ययन कराये तो उसे देश एवं प्रदेश में व्याप्त एक बहुत बड़ी समस्या और उसका समाधान ये अ-सरकारी कर्मचारी मुहैया करा सकते हैं। सरकार जनता की सेवा के लिए कर्मचारियों की नियुक्ति करती है और जनता की हमेशा यह शिकायत रहती है कि कर्मचारी सही से काम नहीं करते। किन्तु जहां-जहां ये अ-सरकारी कर्मचारी नियुक्त हुए हैं वहां व्यवस्था में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य आया है जिसे हम इन अ-सरकारी कर्मचारियों की उपयोगिता के रूप में रेखांकित कर सकते हैंे। अ-सरकारी कर्मचारियों की कुछ उपयोगिता या व्यवस्था में उनके योगदान को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है-
१. सामान्यतया यह देखा गया है कि एक अ-सरकारी कर्मचारी सरकारी कर्मचारी की तुलना में अधिक निष्ठा, कार्यकुशलता, लगन, मेहनत एवं ईमानदारी से काम करता है। इसका कारण स्पष्ट है कि उसे यह पता होता है उसकी यह काबिलियत ही उसे किसी सरकारी कार्यालय में स्थापित बनाये रख सकती है। यही वह एक चीज की कमी इस कार्यालय में थी जिसकी पूर्ति के लिए उसे लाया गया है और सबसे बड़ी बात यह कि यदि उसने इन मानकों का पालन नहीं किया तो किसी भी समय उसे उसकी सेवाओं से हटाया जा सकता है। तो क्या इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सरकारी कर्मचारियों के कथित निकम्मेपन का कारण उनकी सेवाओं की स्थायी प्रकृति का होना है? २. सीमित साधनों में अधिकतम उत्पादकता का प्रयास - अ-सरकारी कर्मचारियों में यह गुण पाया जाता है कि वे व्यवस्था में व्याप्त कमियों के कारण न-नुकुर न करके केवल काम पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं। वे विषम से विषम परिस्थितियों में काम करने को तत्पर रहते हैं। क्योंकि उनके मन में कहीं न कहीं यह बात जरूर होती है कि मुझे अपने काम से मतलब है न कि पूरे कार्यालय की व्यवस्था से। ३. दुष्प्रेरकों से प्रभावित न होना - मेरे हिसाब से हर वह व्यक्ति जो अपने प्रभाव से किसी कर्मचारी को उसके सामान्य कार्य से बहकाये वह दुष्प्रेरक है। सामान्यतया अ-सरकारी कर्मचारी दुष्प्रेरकों के प्रभाव से रहित होते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी नियुक्ति और पदच्युति में इन कथित दुष्प्रेरकों की कोई भूमिका नहीं रहती है। ४. कार्यों को अधिक कुशल सम्पादन - अ-सरकारी कर्मचारी सरकारी कार्यालय के किसी कार्य पर अपना अधिपत्य नहीं समझता और यही कारण है कि वह किसी काम को लटकाये नहीं रखना चाहता। इसका परिणाम यह होता है कि कार्य निर्बाध गति से अनवरत चलता रहता है। ५. अ-सरकारी कर्मचारी कम खर्चीले होते हैं- जहां एक सरकारी कर्मचारी को पन्द्रह से बीस हजार रूपये तनख्वाह पर रखकर भी कार्य करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता वहीं अ-सरकारी कर्मचारी महज तीन से छ: हजार में आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। सरकारी कर्मचारी की तुलना में अधिक कुशलता से कार्य का निष्पादन करते हैं और इनका मनमाना उपयोग भी किया जा सकता है। सस्ता भी बढ़िया भी। ६. नियुक्ति प्राधिकारी के प्रति पूर्ण निष्ठा - अ-सरकारी कर्मचारी अपने नियुक्ति प्राधिकारी के प्रति पूर्ण निष्ठावान पाये जाते हैं। यही कारण है कि ये अन्य अधिकारियों का प्रभावशाली कर्मचारियों के दबाव में नहीं आते हैं। ये न तो किसी आन्तरिक न तो किसी वाह्य अधिकारी के ही दबाव में आते हैं। इस कारण से भी कार्य को कुशल सम्पादन अनवरत गति से चलता रहता है। ७. यूनियनों और कर्मचारी संगठनों से प्रभावित नहीं होते - चंूकि ये अ-सरकारी कर्मचारी किसी यूनियन अथवा कर्मचारी संगठन के सदस्य नहीं होते हैं इसलिए ये इन संगठनों और यूनियनों के प्रस्तावों के द्वारा भी प्रभावित नहीं होते हैं। ८. समय की बचत - अ-सरकारी कर्मचारी अपने पास किसी काम को अधिक समय तक लम्बित नहीं रखना चाहते और यदि कोई जटिल समस्या उनके सामने आती है तो वे उस समय तकनीकी का अधिकतम उपयोग कर उसे सरलतम रूप में परिवर्तित कर लेते हैं। वे किसी सरकारी ढर्रे पर चलने के आदी नहीं होते हैं।
अ-सरकारी कर्मचारियों से केवल लाभ ही होता हो, ऐसा नहीं है। इनके द्वारा विभागों को कुछ हानियां भी हैं। अ-सरकारी कर्मचारियों की सामाजिक और आर्थिक जिन्दगी से हम आगे की पोस्टों में परिचित होंगे।

Saturday, December 26, 2009

सरकारी क्षेत्र के असरकारी कर्मचारी...........



   एक समय हुआ करता था जब कि हम किसी से परिचय प्राप्त करते समय उससे पूंछा करते थे कि आप किस क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं तो उसके जवाब के लिए उसके पास केवल दो विकल्प ही होते थे या तो वह कहता था कि वह सरकारी क्षेत्र में काम करता है या कहता था कि प्राइवेट सेक्टर में काम करता है। परन्तु आज के तकनीकी युग में जिस प्रकार से नयी-नयी तकनीकियों का आविष्कार हो रहा है उसी तरह से इन क्षेत्रों में भी एक नये क्षेत्र का भी उद्भव पिछले कुछ वषों में हुआ है, और उस नये क्षेत्र के कर्मचारी हैं- सरकारी क्षेत्र के असरकारी कर्मचारी। चौंकिये नहीं! यह असरकारी शब्द सरकारी क्षेत्र के प्रभावशाली कर्मचारियों की श्रेणी नहीं है बल्कि यह उन कर्मचारियों की श्रेणी है जो अ-सरकारी हैं और सरकारी क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। 
  जिन लोगों का सरकारी कार्यालयों से दूर-दूर तक नाता नहीं होगा उन्हें शायद मेरी बात पर आश्चर्य भी हो रहा होगा कि वास्तव में कर्मचारियों की ऐसी भी श्रेणी हो सकती है, लेकिन वे लोग जो सरकारी कार्यालयों से सम्बन्धित हैं वे इन नयी श्रेणी के कर्मचारियों से भली-भांति परिचित होंगे। असरकारी कर्मचारी जैसा कि इनके नाम से ही पता चलता है कि ये सरकारी नहीं होते अत: इनकी नियुक्ति, उपस्थिति, भुगतान, कार्य की शर्तें आदि किसी सरकारी कागज पर लिखित रूप में नहीं होती हैं वरन् इन्हें आपसी समझ-बूझ के आधार पर नियुक्त कर लिया जाता है, और ये नियोक्ता के प्रसाद पर्यन्त अपनी सेवाएं प्रदान करते रहते हैं। 
  अब प्रश्न यह उठता है कि जब सरकारी क्षेत्र में कर्मचारियों की संख्या इतनी अधिक है कि सरकार को समय से वेतन देने में भी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है तो फिर इस तरह के कर्मचारियों का क्या औचित्य। इन असरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति के कारणों के रूप में आज की तकनीकी और खास-तौर पर कम्प्यूटर को दोष दिया जा रहा है।  
 सरकार ने असरकारी क्षेत्र को देखते हुए विचार किया कि यदि सरकारी कार्यालयों में कम्प्यूटर मुहैया करा दिया जाय तो ई-गवर्नमेंट की राह आसान हो जायेगी और सरकारी कामकाज के ढर्रे में भी सुधार आयेगा तथा समय से सूचनाएं शासन के पास उपलब्ध रहेंगी। बस सरकार ने आव देखा न ताव धड़ाधड़ कम्प्यूटर खरीदे जाने लगे और सरकारी कार्यालयों में स्थापित किये जाने लगे। लेकिन सरकार से यहीं चूक हो गयी। सरकार सरकारी कर्मचारियों को या तो प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं करा सकी, या तो प्रशिक्षण केवल कागजों पर ही संचालित होते रहे, या तो प्रभावी नियंत्रण के अभाव के कारण कर्मचारियों ने प्रशिक्षण में कोई रूचि नहीं ली। फलस्वरूप कर्मचारियों को प्रमाणपत्र तो मिल गया और उस प्रमाणपत्र के साथ उन्हें मिलने वाला टंकण भत्ता अब कम्प्यूटर भत्ता में भी बदल गया किन्तु वे आज भी अपने को कप्यूटर निरक्षर ही बताते हैं। फलस्वरूप कम्प्यूटर या तो डिब्बे में ही बन्द रहे, या अधिकारियों के बच्चों के लिए उनके घरों में चोरी छिपे स्थापित कर दिये गये या फिर जरूरत महसूस की जाने लगी कि किसी असरकारी व्यक्ति की सेवाएं ली जाएं।
   असरकारी कर्मचारियों की उत्पत्ति में यह मान लिया जाय कि सरकारी कर्मचारियों ने कम्प्यूटर प्रशिक्षण नहीं लिया इसलिए असरकारी कर्मचारी इस क्षेत्र में आये तो यह भी पूर्णतया सत्य नहीं है। आजकल विभागों में विभागाध्यक्षों में सत्य की शक्ति न होने के कारण उनका अधीनस्थों पर प्रभावी नियंत्रण नहीं रहा। उसका परिणाम यह हुआ कि आज के विभागाध्यक्ष अपने अधीनस्थों को कड़ाई से कम्प्यूटर के प्रयोग के लिए बाध्य नहीं कर सके। प्रभावी नियंत्रण का अभाव न होने के कारण वे सरकारी कर्मचारी जो कम्प्यूटर के प्रति खासा उत्साहित थे अन्तत: वे हार गये और उन्होंने धीरे धीरे अपने को तकनीकी निरक्षर साबित करने में ही भलाई समझी। आप सोच रहे होंगे कि जो व्यक्ति एक बार कम्प्यूटर पर काम कर ले वह कम्प्यूटर के मोह से कैसे बच सकता है, यानि कि वह अपने को कम्प्यूटर निरक्षर भला क्यों कर साबित करेगा। इसका कारण मैं आपको समझाता हूं। श्रीमान क जो कि एक सरकारी कर्मचारी हैं, ने अपने अन्य सहयोगियों के साथ ही कम्प्यूटर प्रशिक्षण प्राप्त किया, चूंकि वे कम्प्यूटर के आने से व्यवस्था में होने वाले बदलाव के प्रति खासे उत्साहित थे इसलिए उन्होंने प्रशिक्षण को बड़ी निष्ठा व लगन से पूर्ण किया। प्रशिक्षण के बाद श्रीमान क ने अपना कार्यालयीय काम कम्प्यूटर पर करना प्रारम्भ कर दिया जबकि उनके अन्य साथी कर्मचारी या तो कम्प्यूटर पर गेम खेलते या इस तलाश में रहते कि श्रीमान क थोड़ा सा खाली हों तो उनका काम भी निपटा दें। शुरू में श्रीमान क ने यह सोचते हुए कि ये कम सीख पाये हैं इसलिए मदद करने की भावना से उनके कामों को निपटाते रहे। धीरे-धीरे उनके साथी कर्मचारियों ने श्रीमान क के इस नेक इरादे का फायदा उठाते हुए, इसे अपना हक समझ लिया। अब श्रीमान क की स्थिति यह हो चुकी थी कि उनके अन्य साथी उनके अधिकारी के समान उन्हें काम सौंप कर चाय पीने चले जाते और श्रीमान क घण्टों बैठकर दूसरों के काम निपटाते। यह स्थिति बहुत ही निराश करने वाली होती है कि आप जिस व्यक्ति के लिए परेशान हो रहे हों वह कहीं बाहर जाकर चाय पी रहा हो या कस्टमर सेट कर रहा हो। अन्तत: श्रीमान क ने इस तरह काम करने से हाथ खड़े कर लिये। साथी कर्मचारी जो कि पहले बड़ी मीठी-मीठी बातें किया करते थे अब उन्हें घमण्डी, लोभी और न जाने किन-किन सम्बोधनों से सम्बोधित करने लगे। अगर बात यहीं तक सीमित होती तब भी गनीमत थी। श्रीमान क के अपने काम तक ही सीमित रह जाने के कारण या अतिव्यस्तता के कारण अन्य साथी कर्मचारियों के कार्य में बाधा पहुंचने लगी। जब अधिकारी ने सम्बन्धित को फटकार लगाई तो उनसे अपने आप को निर्दोष बताते हुए कहा कि साहब क्या करें श्रीमान क कुछ काम हीं नहीं करना चाह रहे हैं हमेशा फाइलें लटकाये रखते हैं न जाने क्या चाहते हैं? ऐसी शिकायत कई लोगों से मिलने के बाद एक दिन श्रीमान क को अधिकारी के सामने पेश किया गया और उस दिन अधिकारी के द्वारा उनके कम्प्यूटर प्रशिक्षण और उनके कम्प्यूटर के प्रति उत्साह का जो परिणाम मिला कि श्रीमान क ने अपने को कम्प्यूटर निरक्षर मान लेने में ही भलाई समझी। अधिकारी के द्वारा साथी कर्मचारियों को कम्प्यूटर पर कार्य करने के लिए बाध्य करने के बजाय श्रीमान क को फटकार लगाना क्या उचित है? क्या यह श्रीमान क के काम के प्रति निष्ठा को प्रभावित नहीं करता? यह कहां तक उचित है कि श्रीमान क को केवल इस बात के दण्डस्वरूप कि वे कम्प्यूटर साक्षर हैं और कुशल कम्प्यूटर संचालक हैं, वे अपने काम के साथ साथ अन्य साथी कर्मचारियों का काम भी अकेले ही करें? बेहतर तो तब होता जब अधिकारी अन्य साथियों से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए कह देता। कुछ वर्ष पहले जब बैंकों का कम्प्यूटरीकृत हुआ था तो बहुत से कर्मचारी ऐसे थे जो कि कुछ ही वर्षों में सेवानिवृत्त होने वाले थे वे नये सिस्टम में काम नहीं करना चाहते थे लेकिन बैंक ने क्या किया? या तो काम करो या तो सेवानिवृत्ति ले लो। बस फिर क्या था सारे कर्मचारी कम्प्यूटर पर काम करने लगे और आज कर्मचारी भी नयी तकनीकी के प्रयोग से खुश है और ग्राहक भी संतुष्ट हैं। देश को कोषागारों का कम्प्यूटरीकृत किया जाना अपने-आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है और प्रभावी नियंत्रण का एक नायाब नमूना भी। साथी ही यह उनके सवालों का भी जवाब है जो कि कहते हैं कि सरकारी क्षेत्र में नयी व्यवस्थाएं लागू ही नहीं हो सकती।
 इन सरकारी क्षेत्र के असरकारी कर्मचारियों से जुड़ी बहुत सी बातें मेरे मन में आ रही हैं लेकिन उन सबको एक की पोस्ट में डाल देना उचित नहीं प्रतीत हो रहा है। इस पोस्ट में हमने उनके उत्पत्ति के कारणों में से कुछ पर विचार किया। आगे हम उनके उद्भव एवं विकास के साथ साथ उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर भी विचार करेंगे।


Tuesday, September 1, 2009

काश कविता मैं भी करता

काश कविता मैं भी करता
अक्षर के मोती चुन-चुनकर, 
सुर के धागे में फिर रचता 
काश कविता मैं भी करता  
कविता रचना है मनभावन 
कविता मन को करती पावन 
कविता में सब भूले तनमन 
कविता है वो जो छू ले मन सबका अन्तर्मन

Saturday, August 1, 2009

अर्धकुम्भ मेला २००७ : कुछ संस्मरण

अर्धकुम्भ मेला २००७ : कुछ संस्मरण
गंगे तव दर्शनात मुक्ति:। सच ही कहा गया है कि जीव गंगा जी के दर्शन करने मात्र से मुक्त हो जाता है। कभी-कभी तो मैं सोचता हूं कि मैं कितना सौभाग्यशाली हूं जो कि मुझे गंगा मां की पूरे ग्यारह माह सेवा करने का अवसर मिला।
बात उस समय की है जब शताब्दी का प्रथम अर्धकुम्भ प्रयाग में लगने वाला था यानि कि सन २००७। यह मेला विश्व का सबसे बड़ा मेला है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मेले की तैयारी में लगभग एक वर्ष का समय लगता है। मेले की देखरेख के लिए एक मेलाधिकारी की नियुक्ति की जाती है जो कि एक आई०ए०एस० संवर्ग का अधिकारी होता है तथा कई अन्य अधिकारी जो कि पी०सी०एस० संवर्ग के होते हैं की नियुक्ति की जाती है। मेला अवधि में पूरा मेला एक स्वतंत्र जिला घोषित कर दिया जाता है जिसकी अपनी पुलिस व्यवस्था, परिवहन, विद्युत, स्वास्थ्य, खाद्य एवं सफाई की व्यवस्थाएं खुद की होती है और इन कार्यों के लिए अलग-अलग विभागों का गठन ठीक उसी प्रकार किया जाता है जैसे कि एक जिले में होता है।


पुलिस व्यवस्था के लिए एक वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की नियुक्ति की जाती है जो कि आई०पी०एस० संवर्ग का अधिकारी होता है तथा उसका पूरा संगठन भी मेला अवधि तक के लिए नियुक्त किया जाता है। इसी प्रकार स्वास्थ्य विभाग का मुखिया मुख्य चिकित्साधिकारी होता है और जिले के समान ही उसका पूरा संगठन उसके साथ नियुक्त किया जाता है। पूरे मेले में एक प्रधान चिकित्सालय, कई क्षेत्रीय चिकित्सालय एवं सचल चिकित्सालयों की स्थापना की जाती है जिनमें सारी सुविधाएं पूर्णतया नि:शुल्क उपलब्ध होती हैं। जलनिगम एवं विद्युत विभाग में भी इसी प्रकार वरिष्ठ अधिकारियों की देखरेख में टीम का गठन किया जाता है। मेले में सिंचाई विभाग की भूमिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। सिंचाई विभाग के अधिकारी एवं कर्मचारी सम्पूर्ण मेला अवधि तक गंगा के जल स्तर, घुमाव एवं कटाव आदि के प्रति सजग रहते हुए यथावश्यक कार्यवाही करते रहते हैं। इस मेले के संचालन में केवल सरकारी अनुदान ही कार्य नहीं करता वरन अनेक गैर-सरकारी संगठनों के साथ साथ घाटियों एवं पण्डों का योगदान भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। जिस प्रकार जब सारी उंगलिया मिलकर मुठ्ठी का रूप धारण कर लेती हैं तो उनकी संयुक्त शक्ति कई गुना बढ़ जाती है और वे समस्याओं का सामना आसानी से कर सकते हैं उसी प्रकार ये सारे छोटे-बड़े संगठन मिलकर जब एक समान उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिलकर कार्य करते हैं तो कैसे न मेला सकुशल सम्पन्न हो।

मेले में कोई अप्रिय घटना न घटे इसके लिए सभी जी-जान से प्रयास करते हैं फिर भी यदि कोई घटना घट ही जाये तो प्रभावित व्यक्ति को समुचित मुआवजा मिल सके इसके लिए मेला में आने वाले समस्त व्यक्तियों का दुर्घटना बीमा सरकार की ओर से कराया जाता है। जैसे ही कोई व्यक्ति मेला की सीमा में प्रवेश करता है वह इस बीमा योजना से आच्छादित हो जाता है। मेले में कल्पवासियों को सस्ते दर पर खाद्यान्न एवं मिट्टी का तेल आदि उपलब्ध कराने के लिए मेले का अपना खाद्य एवं आपूर्ति विभाग होता है जो कि पूरे मेला क्षेत्र में सस्ते गल्ले, चीनी एवं मिट्टी के तेल की दूकानों की स्थापना करता है तथा कल्पवासियों को राशनकार्ड वितरित करता है।


संचार के साधन आज के समय की प्रमुख आवश्यकताओं में से एक हैं। पूरे मेला क्षेत्र में डाकघरों की स्थापना की जाती है जहां से हर समय डाक विभाग की सुविधाओं का लाभ कल्पवासी एवं आम जन उठा सकते हैं। कई मोबाइल कम्पनियां सचल एवं अस्थायी टावरों की स्थापना भी पूरे मेला क्षेत्र में करती हैं। इसके साथ ही बी०एस०एन०एल० तथा अन्य संचार कंपनियों को अपनी क्षमता भी बढ़ानी पड़ जाती है। मेले का अपना स्वयं का सूचना विभाग होता है जिसमें जिला स्तर के सक्षम अधिकारी पूरे साजो-सामान के साथ नियुक्त किये जाते हैं। मीडिया सम्बन्धी सभी मामले सूचना विभाग ही देखता है।

मेले में आये आम-जन एवं कल्पवासियों की सुविधा के लिए लगभग सभी बैंक अपनी शाखाएं मेला क्षेत्र में खोलते हैं और चंूकि अब सभी बैंकों का कम्प्यूटरीकरण हो चुका है इसलिए किसी अन्य शाखा एवं मेला में स्थापित की गयी शाखा की कार्यपद्धति में कोई अन्तर नहीं रह जाता। कोई भी व्यक्ति चाहे कहीं का मूल निवासी हो वह मेा में स्थापित शाखा से अपने खाते से सम्बन्धित किसी भी प्रकार का लेन-देन कर सकता है। कई बैंक मेला क्षेत्र में अस्थायी एवं सचल ए०टी०एम० मशीनों की स्थापना भी करते हैं। इस प्रकार वे अत्याधुनिक तकनीकों के माध्यम से हर सुविधा उपलब्ध कराने का भरपूर प्रयास करते हैं। मेले की एक खास बात है कि मेला क्षेत्र में आने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं सोता। पूरे मेले में जैसे दान-पुण्य करने की होढ़ सी लगी रहती है। मैने खुद मेला कार्यालय में लोगों को इस बात पर दुखी होते एवं अफसोस जाहिर करते हुए सुना है कि मैं इतना रूपये खर्च करने की इच्छा से आया था जबकि अभी तक मात्र इतने कम रूपये ही खर्च कर सका हूं। कोई मेले में लंगर चला रहा है जहां प्रतिदिन हजारों व्यक्ति भोजन करते हों तो कोई वस्त्र का दान कर रहा है, कोई नि:शुल्क दवा का वितरण कर रहा है तो कोई धार्मिक पुस्तकों का वितरण कर रहा है। सचमुच पूरा वातावरण ही दानमय हो जाता है।


मेला क्षेत्र में गंगा जी की शरण में आकर ही मुझे ये ज्ञान भी मिला कि गंगा मां क्यों हैं। बच्चा मां से कुछ भी मांगे तो मां अपने वात्सल्य के कारण मना नहीं कर पाती। इसी तरह गंगा मां से जो कोई जो कुछ मांगता है उसी उसकी मन की वस्तु मिल जाती है। कल्पना कीजिए यदि दान लेने वाला ही न होगा तो दान किसे दिया जायेगा। यहां दान लेने वालों की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। आप मेले में एक स्थान पर खड़े हो जाइये और अपने दायरे में आने वाले व्यक्तियों को अध्ययन कीजिए आपके ज्ञानचक्षु खुल जायेंगे। जितने व्यक्ति उतनी आकांक्षाएं और उनकी आकांक्षाएं पूरी हो रही हैं। जो नयनसुख के लिए आया है उसे नयनसुख मिल रहा है। जो व्यापार के लिए आया है उसे व्यापार मिल रहा है। जो धर्म के लिए आया है उसे धर्म करने का अवसर मिल रहा है। जो चोरी करने के लिए आया है उसे इतनी अपार भीड़ के कारण चोरी करने का अवसर मिल रहा है। जो बेईमानी करने के लिए आया है उसे बेईमानी करने का अवसर मिल रहा है। आपके दायरे में दुनिया का सत्य दिख जायेगा।

अभी चिठ्ठा लम्बा हो रहा है इसलिए अनुमति चाहूंगा। अगले चिठ्ठे में उस अनमोल बात या यूं कहें कि जो ज्ञान मुझे मेला में मिला, जो कि किसी खजाने से कम नहीं है, किताबों में पढ़ा था लेकिन प्रत्यक्ष देखने को मिला उसकी बात मैं बताउंगा तब तक के लिए विदा।

Friday, July 31, 2009

अर्धकुम्भ मेला २००७, इलाहाबाद : एक संस्मरण

अर्धकुम्भ मेला २००७, इलाहाबाद : एक संस्मरण


प्रयाग, तीर्थराज प्रयाग, जो अब इलाहाबाद के नाम से जाना जाता है। वर्ष २००७ में यहां शताब्दी का पहला अर्धकुम्भ मेला लग रहा है। पूरी दुनिया की निगाहें ४००१ बीघे में बसे इस मेले पर केन्द्रित है। दिनांक ११ सितम्बर २००६ से मुझे भी कम्प्यूटर आपरेटर के रूप में इस मेले का एक अंग होने का गौरव प्राप्त हुआ।
मैं कैसे मेले का अंग बना? यह सब महज संयोग ही था। मेरी मेले में सेवा देने की कोई पूर्व योजना नहीं थी। मैंने रेडियो मुख्यालय, उ०प्र० पुलिस द्वारा आयोजित रेडियो आपरेटर पद की परीक्षा दी थी जिसके लिए मैं प्रारम्भिक और शारीरिक दक्षता परीक्षाओं में उत्तीर्ण घोषित किया गया था। मैं इस परीक्षा को लेकर काफी उत्साहित एवं आशान्वित था मेरे परिचितो ने ज्योतिषियो से विचार-विमर्श द्वारा यह पता लगवा लिया था कि मेरे नक्षत्र प्रशासनिक सेवा की ओर संकेत कर रहे हैं और उसकी समय सन् २००१ में डाले गये फार्म के सापेक्ष बुलावा पत्र आने पर सभी इसे चमत्कार की दृष्टि से देख रहे थे। दिनांक १० अगस्त २००६ को इस परीक्षा का अन्तिम चरण मुख्य परीक्षा लखनउ में आयोजित होनी थी, जिसकी तैयारियों में मैं लगा था। उसी समय मेरे मित्र, सहयोगी, शुभेच्छु श्री गुलाब सिंह चौहान जी जो कि आई०ई०आर०टी० के कर्मचारी हैं, का फोन आया, उन्होंने बताया कि मुझे किसी स्थान पर सेवा देनी है जिसके लिए आई०ई०आर०टी० के निदेशक महोदय ने मुझे बुलाया है। मैंने परीक्षाओं को देखते हुए अपनी असमर्थता जाहिर कर दी। इस पर श्री सिंह ने कहा कि मैं एक बार निदेशक महोदय से मिल अवश्य लूं।
मैं २२ जुलाई को निदेशक महोदय श्री एस०सी० रोहतगी जी से मिलने आई०ई०आर०टी० गया। वहां चौहान जी ने मेरा परिचय आपने साथी कर्मचारी श्री रावत जी से कराया और फिर रावत जी मुझे निदेशक महोदय के पास ले गये। उस समय आई०ई०आर०टी० में काउन्सलिंग चल रही थी जिसके कारण निदेशक महोदय काफी व्यस्त थे फिर भी उन्होंने मुझे समुचित समय दिया। हल्का सा परिचय जानने के बाद उन्होंने मुझसे केवल यही अपेक्षा की कि "वहां पर सभी आई०ए०एस०@पी०सी०एस० अधिकारी हैं, उनसे डिक्टेशन लेना होगा, क्या तुम कर सकोगे?" मेरे हां कहने पर उन्होंने एक पत्र लिखकर मुझे तुरन्त त्रिवेणी बांध स्थित मेला कार्यालय में सम्पर्क करने को कहा।
मैं २५ जुलाई को मेला कार्यालय पहुंच गया, सभी अजनबी चेहरे। सभी मेरी ओर और में सबकी ओर देख रहा था लेकिन जैसा कि सरकारी कार्यालयों में होता है किसी ने यह जानने की इच्छा नहीं की कि यह कौन सा अजनबी व्यक्ति कार्यालय में घुस आया है और इधर उधर सबको निहार रहा है। काफी चेहरों के परीक्षण के उपरान्त मेरी निगाहों ने एक चेहरे का चुनाव किया, मैं उनके समक्ष गया, नमस्कार करने के बाद मैंने अपने आने का कारण उनसे बताया। इस पर उन्होंने अवगत कराया कि अभी मेलाधिकारी महोदय कार्यालय में नहीं हैं मैं कुछ देर प्रतीक्षा कर लूं। फिर मैंने पाण्डेय साहब, जिनका नाम मुझे याद नहीं था, के बारे में उनसे पूंछा तो पता चला कि दोनों लोग साथ-साथ सेना के अधिकारियों के साथ किसी बैठक में गये हैं। मैंने जानकारियां प्राप्त कीं और जानकारी देने वाले सज्जन को धन्यवाद देकर प्रतीक्षा करने लगा। यह जानकारी देने वाले सज्जन श्री आशीष कुमार मिश्रा जी, सहसीलदार-करछना थे जो कि वर्तमान में प्रबन्धक, अर्धकुम्भ मेला के पद पर तैनात थे। हालांकि मुझे इस बात की जानकारी उस समय नहीं थी जब मैं उनसे सूचनाएं ले रहा था, और उनका बात करने का तरीका इतना आत्मीय था कि मुझे लगा ही नहीं कि मैं तहसीलदार साहब के सामने बैठा हूं।
लगभग २ घंटे की प्रतीक्षा के बाद मेलाधिकारी महोदय अपने कक्ष में आये। ५-१० मिनट की प्रतीक्षा के बाद मैं उनसे मिलने गया और अपने आने का कारण बताया और निदेशक महोदय द्वारा दिया गया पत्र उन्हें दिया। उन्होंने १० मिनट बाद मिलने को कहा। मैं उनके कक्ष से बाहर निकल आया।
बाहर निकलने के बाद मैंने देखा कि एक कक्ष के सामने कम्प्यूटर कक्ष लिखा हुआ था। जब मैं उस कक्ष में गया तो वहां पर श्री संजय नारायण तिवारी जी से मुलाकात हुई जो कि वहां पर कम्प्यूटर आपरेटर के पद पर तैनात थे और कुम्भ २००१ में भी सफलतापूर्वक कार्य कर चुके थे। यहां पर आपको बताते चलें कि समूह ग के सारे पद उ०प्र० शासन की ओर से अस्थायी रूप से मेला अवधि तक के लिए स्वीकृत किये गये थे। श्री तिवारी जी से बात करके कार्यालय, कार्यालय के लोगों और कार्यालय की कार्यप्रणाली के बारे में काफी जानकारी मिली। हमारा औपचारिक परिचय हुआ। संजय जी इतने मिलनसार प्रकृति के व्यक्ति हैं कि ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम मात्र ५ मिनट पहले मिले हैं।
धीरे-धीरे आधे घंटे बीत गया तो में फिर मेलाधिकारी महोदय के कक्ष में गया। तब उन्होंने मुझसे पूंछा कि तुम क्या करते हो? मैने बताया कि छात्र हूं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता हूं और साथ ही कम्प्यूटर ज्ञान की बदौलत कुछ अर्जित भी कर लेता हूं। उन्होंने आगामी परीक्षाओं के बारे में जानकारी चाही तो मैं ने बताया कि १० अगस्त को रेडियो आपरेटर की परीक्षा लखनउ में देने जाना है। यह बात सुनकर उन्होंने मुझे ११ अगस्त से कार्यालय आने की बात कहकर, परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए जाने को कहा।
उसके बाद में घर आ गया, परीक्षा की तैयारी की और परीक्षा देने के बाद फिर मेला कार्यालय गया। मेरे मन में कई तरह की शंकाएं तैर रही थीं, कई तरह के प्रश्न मन में आ रहे थे, मैं सोच रहा था कि मैं मेलाधिकारी महोदय के समक्ष उपस्थित होकर अपना क्या परिचय दूंगा, आज तो मेरे पास किसी का पत्र भी नहीं है, पता नहीं इतने बड़े अधिकारी मुझे पहचानेंगे भी या नहीं। इसी तरह की उधेड़-बुन करते हुए मैं मेलाधिकारी महोदय के कक्ष में गया। मेरे आश्चर्य की उस समय सीमा न रही जबकि उन्होंने मुझे देखते ही मुझे मेरे नाम से पुकारा। इतनी व्यस्तता, इतनी जिम्मेदारी, प्रतिदिन सैकड़ों लोगों से मिलना, इन सबके बावजूद जिस व्यक्ति से वे पन्द्रह दिन पूर्व मात्र २ मिनट के लिए मिले थे और जो कि बहुत ही मामूली सा व्यक्ति था, उस व्यक्ति को उसके नाम से सम्बोधित करना, यह बात उनकी योग्यता का स्वयं में परिचय कराती है।
मेलाधिकारी महोदय श्री प्रज्ञान राम मिश्र जी का पैतृक निवास मदरा, मकूनपुर, मेजा में है और वर्तमान में ये सोहबतियाबाग में रहते हैं। मेलाधिकारी महोदय को एक-एक बात याद थी कि मेरा नाम क्या है और मुझे किसने किस कार्य के लिए भेजा है आदि आदि। वे बिल्कुल अन्धविश्वासी नहीं है। उन्होंने मेरी नियुक्ति के पूर्व मेरी परीक्षा लेने के लिए अपने पास ही बैठे हुए अपर मेलाधिकारी डा० एस०के० पाण्डेय जी की ओर इशारा करते हुए मेरी परीक्षा लेने के लिए कहा। वे मेरे साथ कम्प्यूटर कक्ष में गये और एक पत्र डिक्टेट किया, वे बोलते गये और मैं सीधे कम्प्यूटर पर टाइप करता गया। इस प्रकार मेरी परीक्षा पूर्ण हुई और मैं सफल घोषित किया गया। दूसरे दिन से मैंने अपनी सेवाएं प्रारम्भ कर दी। धीरे-धीरे समस्त कर्मचारियों से मेरा परिचय हुआ। सभी का व्यवहार इतना मधुर एवं स्नेहपूर्ण था कि मुझे ऐसा लग ही नहीं रहा था कि मैं एक-दो दिन पूर्व ही इस कार्यालय में आया हूं।
तो ये रही मेरी अर्धकुम्भ मेला में कम्प्यूटर आपरेटर के रूप में सेवा प्रारम्भ करने की कहानी। इस ग्यारह महीने की सेवा में कई तरह के मोड़ आये बहुत सी चीजें देखने और सुनने को मिली। कभी कभी तो ऐसी चीजों का व्यावहारिक रूप भी देखने को मिला जो किताबों में लिखी बातों को बिल्कुल ही उलट था। सचमुच यह गंगा मैया की कृपा ही है जो उन्होंने मुझे व्यावहारिक ज्ञान देने के लिए अपनी शरण दी, उन्हीं के प्रताप से मेरी आस्था भी बलवती हुई और होती ही गयी और धीरे-धीरे मैं आस्तिक बनता गया।

Friday, July 3, 2009

कभी रो के मुस्कुराये कभी मुस्कुरा के रोये,

कभी रो के मुस्कुराये कभी मुस्कुरा के रोये,
याद जितनी आयी, उन्हें भुला के रोये,
एक उनका ही नाम था जिसे हजार बार लिखा,
जितना लिख के खुश हुए, उससे ज्यादा मिटा के रोए।।

Thursday, July 2, 2009

होने थे जितने खेल मुकद्दर के हो गये,

होने थे जितने खेल मुकद्दर के हो गये,
हम टूटी नाव ले समन्दर में खो गये,
खुशबू हाथों को छू के गुजर गयी
हम फूल सजा-सजा के पत्थर से हो गये।।

होठ पे दोस्ती के फसाने नहीं आते,

होठ पे दोस्ती के फसाने नहीं आते,
साहिल पे समन्दर के खजाने नहीं आते,
उड़ने दो परिन्दों को हवा में,
वापस दोस्ताने के जमाने नहीं आते।।

Tuesday, June 30, 2009

उम्मीदों पे कभी भरोसा न करना,

उम्मीदों पे कभी भरोसा करना,
जो लम्हें बुरे लगें उन्हें सोचा करना,
कमी महसूस हो जिसकी उसका मत ख्याल करना,
खुद में खास हो आप ये हमेशा याद रखना।।

Monday, June 29, 2009

कोशिश करो कि कोई तुमसे न रूठे,

कोशिश करो कि कोई तुमसे न रूठे,
जिन्दगी में अपनों का साथ कभी न छूटे,
रिश्ता कोई भी हो उसे ऐसे निभाओ,
कि उस रिश्ते की डोर जिन्दगी भर न टूटे।।

जिन्दगी चाहत का एक सिलसिला है,

जिन्दगी चाहत का एक सिलसिला है,
कोई मिलेगा तो कोई बिछड़ जायेगा,
जिन्हें मांगते हैं हम दुवाओं में हर पल,
वो किसी और को बिन मांगे ही मिल जायेगा।।

Sunday, June 28, 2009

एक अधूरी ख्वाहिश मेरी भी पूरी हो जाये,

एक अधूरी ख्वाहिश मेरी भी पूरी हो जाये,
मुझे याद करना उसकी मजबूरी हो जाये,
या खुदा जो लोग मुझे एसएमएस न करें,
काश उनका मोबाइल चोरी हो जाये।।

Saturday, June 27, 2009

खुशबू आपकी मुझे महका जाती है,

खुशबू आपकी मुझे महका जाती है,
आपकी हर बात मुझे बहका जाती है,
सांसे तो बहुत वक्त लेती हैं आने-जाने में,
हर सांस से पहले आपकी याद आ जाती है।।

Friday, June 26, 2009

कोई किसी की याद में ऐसे नहीं रोता

कोई किसी की याद में ऐसे नहीं रोता
कोई कभी यूं ही तनहा नहीं होता
रिश्तों को सिर्फ कंजूसी ही ले डूबती है
ये जानकर भी आपसे एक एसएमएस नहीं होता।।

Wednesday, June 24, 2009

इस दुनिया में सब कुछ बिकता है,

इस दुनिया में सब कुछ बिकता है,
पर बस जुदाई रिश्वत क्यों नहीं लेती,
मरता नहीं कोई किसी से जुदा होकर,
बस यादें ही हैं जो जीने नहीं देतीं।।

Sunday, May 17, 2009

न जाने कब कौन खड़गसिंह के रूप में सामने आ जाये

जीवन अनुभव ग्रहण करने की एक प्रक्रिया है। हम जीवन-पर्यन्त अनुभव ग्रहण करते रहते हैं, उनका पुराने अनुभवों से मिलान या मूल्यांकन करते रहते हैं और यदि आवश्यकता पड़ती है तो नये मूल्यों का निर्माण करते हैं। लेकिन अक्सर होता यह है कि हमें कड़वे अनुभवों का ही चर्चायें आमतौर पर सुनने को मिलती हैं, इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हमें अच्छे अनुभव होते ही नहीं हैं बल्कि इसका कारण यह होता है कि कड़वे अनुभव हमें सीख दे जाते हैं और हमें बताते हैं कि यह अनुभव सहेज कर रख लें जिससे कि हमारी आने वाली पीढ़ी उस दर्द से बची रह सके जिसे हमने झेला है। हम अक्सर अपने कड़वे अनुभव ही आपस में साझा करते हैं इस बात में मुझे बाबा भारती और डाकू खड़गसिंह की पुरानी कहानी याद आती है जिसमें डाकू खड़गसिंह एक बीमार व्यक्ति का भेष धर कर बाबा भारती का प्यारा घोड़ा हथिया लेता है। बाबा भारती के ये कथन कि "घोड़ा तो ले जाओ लेकिन इस बात की चर्चा किसी से न करना, नहीं तो लोगों का दु:खी और असहायों की सहायता करने से विश्वास उठ जायेगा।" इतने असरकारी साबित हुए कि डाकू खड़गसिंह का हृदय परिवर्तित हो गया उसने घोड़ा भी लौटा दिया और भिक्षु बन गया। बाबा भारती के शब्द पर हमें आज के समय में विचार करने की आवश्यकता है। हमें आवश्यकता है कि हम अपने अनुभव साझा करते समय इस बात का भी ख्याल रखें कि इसका क्या परिणाम होगा। कहीं ऐसा न हो कि हमारा यह अनुभव चारो तरफ अविश्वास के ही बीज-वपन करने लगे। हमारे समाचार माध्यमों की खबरों से अक्सर ऐसे "ज्ञान" अथवा "अनुभव" सामने आते हैं जो कि हमें अपने रिश्तों को शक की निगाह से देखने को मजबूर कर देते हैं। क्या ऐसा अनुभव साझा करना हमें एक अच्छे भविष्य की ओर ले जायेगा? अगर बाबा भारती दरवाजे-दरवाजे जाकर अपना दुखड़ा रोते तो उनका घोड़ा तो उन्हें कभी न मिलता लेकिन लोग यह शिक्षा जरूर ग्रहण कर लेते कि कभी किसी गरीब-दुखिया की मदद न करो न जाने कब कौन खड़गसिंह के रूप में सामने आ जाये।

Friday, May 15, 2009

जीवन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जीवन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। आदमी जन्म के पालने से लेकर मृत्यु-शय्या तक शिक्षा ग्रहण करता रहता है। अलग-अलग विद्वानों ने शिक्षा के अलग-अलग विभाग किये हैं किन्तु प्रमुखत: शिक्षा दो तरह की हो सकती है, एक तो औपचारिक जो कि एक पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार निर्धारित पाठ्यक्रम और निर्धारित समय-सीमा के अन्तर्गत दी जाती है, तथा दूसरी अनौपचारिक शिक्षा जिसे कि व्यक्ति कहीं भी किसी से भी कभी भी ग्रहण कर सकता है। जैसे कि एक कहानी में एक पराजित राजा ने मकड़ी से शिक्षा ग्रहण की और अन्तत: विजयी हुआ। यह जो बड़े-बड़े ग्रन्थ हैं जिन्हें बड़े-बड़े विद्वानों ने लिखा है यह भी अनुभवों का संकलन मात्र है जिसका हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में शिक्षा के माध्यम से होता है। इन ग्रन्थों का प्रयोजन यही होता है कि हमारी आने वाली पीढ़ी को वह दु:ख न सहने पड़ें जो कि अज्ञानतावश उन्होंने सहे हैं। किन्तु वर्तमान में यदि हम अपना अवलोकन करें तो हमारी मानसिकता ऐसी हो गयी है जिसमें हम पुराने अनुभवों से सीख न लेकर उस विषय पर खुद से प्रयोग करके सीखने का प्रयास करते हैं। यह अच्छी बात है किन्तु इसकी हानि भी बहुत है। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि इसमें एक तो हमारा कीमती समय बर्बाद होता है साथ ही साथ कभी-कभी हम केवल प्रयोग के उपकरण मात्र बनकर रह जाते हैं या कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि हम एक प्रायोगिक श्रृंखला के सदस्य बनजाने के कारण प्रयोग के बाद अगले प्रयोग में फंसते जाते हैं और अपने जीवन को नष्ट कर देते हैं। इतना सबकुछ जानने के बाद भी हम खुद से प्रयोग करने में ही ज्यादा आस्था रखते हैं।

Saturday, March 28, 2009

क्या युवाओं को व्यायाम की आवश्यकता नहीं......

अभी मैं एक प्रतिष्ठित टी०वी० चैनल पर योगाभ्यास का कार्यक्रम देख रहा था। उस योगाभ्यास कार्यक्रम में अनेकानेक वरिष्ठ नागरिक लाभान्वित हो रहे थे। मुझे यह देखकर काफी निराशा भी हुई और आश्चर्य भी कि उस कार्यक्रम में एक भी युवा योगाभ्यास नहीं कर रहा था। यह स्थिति केवल उस टी०वी० चैनल की ही नहीं है वरन हमारे चारो ओर देखने को मिल जाता है। जब मैं सुबह टहलने के लिए निकलता हूं तो टहलने वालों में सबसे अधिक संख्या उनकी होती है जो अभी हाल ही में सेवानिवृत्त हुए हैं और जैसे-जैसे हम कम उम्र के लोगों की ओर बढ़ते जाते हैं संख्या आश्चर्यजनक रूप से कम होती जाती है। स्थिति यह है कि १८-२० वर्ष आयु के युवा बहुत ढूढने के बाद कहीं दिख जाते हैं।
यह स्थिति अत्यन्त निराशाजनक है। कहा जाता है कि उपचार से बेहतर परहेज है। व्यायाम के महत्व को युवा संन्यासी स्वामी विवेकानन्द जी ने स्वीकार करते हुए कहा था कि युवाओं को खूब व्यायाम करना चाहिए क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रहता है। बिना स्वस्थ मस्तिष्क के कोई भी कार्य नहीं किया जा सकता। फिर हमारे युवा के मन में यह छोटी सी बात क्यों नहीं आ रही है। अरे भाई क्या बतायें समय ही नहीं मिलता। समय नहीं मिलता या हम समय नहीं निकालते या साफ-साफ कहें तो समय का प्रबन्धन ठीक ढंग से नहीं कर पाते। एक प्रश्न और हमेशा मन में गूंजता है कि पहले का युवा कितना अलमस्त रहता था वह हर चीज में बढ-चढ कर हिस्सा लेता था और हर क्षेत्र में उसकी उपलब्धि देखी जा सकती है। पह पढ़ाई भी करता था और अच्छा खिलाड़ी हुआ करता था और यदि बात देशभक्ति की आ जाये तो जान देने को भी तैयार रहता था। ये सारे गुण आज के युवा में कम होते हुए से प्रतीत हो रहे हैं। हमारा आज का युवा व्यस्त अधिक हो गया है लेकिन आउटपुट कुछ देखने को नहीं मिल रहा है। यह तो वही बात हुई कि "बिजी विदाउट बिजिनेस"। इस स्थिति से हमारा युवा भी काफी निराश, हताश और परेशान है। उसे कोई राह दिखाई नहीं दे रही है, वह क्या करे, कहां जाये...... कोई है जो उसे सही राह दिखा सके.......... चिट्ठाजगत से गुहार है कोई उसकी मदद करे

Thursday, March 19, 2009

मां की डांट से क्षुब्ध बालक ने जान दी



इस तरह की ना जाने कितनी ही खबरें हम आये दिन समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं। पहले इस तरह की घटनाएं कम होती थी और आज ज्यादा हो रही है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। ऐसा भी हो सकता है कि पहले इन घटनाओ की जानकारी का क्षेत्र इतना व्यापक न था जितना आज का है। इस हेतु मीडिया के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
मां की डांट क्या इतनी कड़वी हो सकती है कि बालक जान देने पर उतारू हो जाय? पहले मुझे ऐसे पाल्यों पर तरस आता था जो ऐसी हरकत करके ईश्वर का खूबसूरत उपहार जीवन को ठुकराते थे। लेकिन कभी-कभी जीवन में ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हो सकती है जबकि हमारा दिमाग काम करना बन्द कर दे और हम गलत कदम उठाने पर मजबूर हो जायें। अक्सर ऐसा होता है कि हम अपने अपनों से आवश्यकता से अधिक की अपेक्षा रखते हैं। यह स्थिति पालक और पाल्य दोनों के साथ होती है। जब मेरी मां ने मुझे खरी-खोटी सुनाई तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरा इस संसार में अब कोई रहा ही नहीं। जब अपनी मां जिसने मुझे जन्म दिया वह ऐसी बातें कह रही है तो ठीक है मैं उससे बहुत दूर चला जाउंगा। शायद वह अकेले ही रहना चाहती हैं तो ले-लें अपना राज-पाट, मुझे नहीं रहना है इनके साथ। दूसरे के मां-बाप अपने बच्चों के लिए क्या-क्या नहीं करते। मैंने कभी कोई नाजायज मांग भी नहीं की। फिर भी मुझे सबके सामने जलील करने का प्रयास किया जा रहा है। शायद मेरी मां मुझसे उब गयी है। यदि यही सच है तो मैं खुद ही उससे दूर चला जाता हूं जिससे कि वह खुश रहे........
इस तरह के न जाने कितने ही विचार एक ही सेकेण्ड के अन्दर मन में आ जाते हैं और दिमाग के सर्वर को डाउन करने पर तुल जाते है, यदि इस समय आपका सर्वर डाउन हो गया यानि की विचार चेतना ने साथ छोड़ दिया तो घर से बहुत-बहुत दूर जाने का विचार मन में आता है और लोग गलत कदम उठाते हैं।
किंतु यदि इसी बात को मां के पक्ष से सोचा जाय तो ..... तो क्या हम इस तरह का निर्णय (घर@दुनिया छोडने का निर्णय) लेते समय उस मां के दर्द का अनुमान लगा पाते हैं, जो कि अपने बच्चे के जन्म के लिए कितने दुख झेलती है, कहा जाता है कि जब एक बच्चा जन्म लेता है तो मां का दूसरा जन्म होता है, जिस मां ने अपने बच्चे को एक-एक पल अपनी आंखों के सामने बढ़ते हुए देखा है यदि बुढ़ापे में उसका बच्चा उससे छीन लिया जाय, या बच्चा उसे छोड़कर चला जाय तो उस मां की स्थिति क्या होती होगी इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता, उसके लिए उस समय तो यही स्थिति होती है कि उसका सर्वस्व लुट गया।
उसका सर्वस्व लुटे तो लुटे मुझे क्या। मुझे तो सारे समाज के सामने उसी ने जलील किया और घर छोड़ने पर मजबूर किया। जब घर छुड़ाया है तो संतानहीन होने का सुख भोगे घर में अकेले रहे।
एक संतानहीन औरत के लिए संतान का न होना सहा जा सकता है किन्तु सन्तान के होते हुए संतान का बिछोह किसी मां के लिए सहनीय नहीं है। वह जीते-जी मर जाती है। लेकिन प्रकृति ने उसे शक्ति दी है जिसके बलबूते पर वह सबकुछ शान्त होकर सारे आरोप प्रत्यारोप अपने उपर लेते हुए चुपचाप सबकुछ सह जाती है।
मां ने बुरा भला कहा, पर क्यों? क्योंकि वह आपसे प्यार नहीं करती। बिल्कुल गलत। वह आपको बहुत चाहती है। अगर आपको कोई तकलीफ होती है तो पहले दर्द मां हो होता है। फिर उसने बुरा भला क्यों कहा? उसने केवल आपकी भलाई के लिए ही अपने कलेजे पर पत्थर रखकर आपको भला-बुरा कहा। मेरी भलाई के लिए, भला वह कैसे? कोई भी मां अपने बच्चे से अलग नहीं रह सकती। लेकिन जब मां देखती है कि घर, परिवार एवं समाज की परिस्थितियां कितनी बदलती जा रही है, ऐसे में यदि आप मां के आंचल (आश्रय) में ही रह गये और खुद अपने आप अपने बारे में विचार करना शुरू न किया तो आने वाले समय में आपको कौन सम्भालेगा (मां के न रहने पर)। वह केवल आपकी खुशी के लिए आपसे दिखावा करती है कि वह आपको नहीं चाहती, वह आपसे खिन्न है, किन्तु उसकी उस समय स्थिति क्या होती है यह एक मां ही समझ सकती है।
मां की डांट में छिपी उसकी भावना की कद्र करना हर संतान का कर्तव्य है। अपनी मां के दुख को समझिये और उसे जीवन भर के लिए दुखी करने वाला कष्ट न दीजिये। आखिर उसने आपको जन्म दिया है और कहा भी गया है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान होती है। उसके ऋण से कोई भी उऋण नहीं हो सकता।

Monday, March 16, 2009

आज का युवा दिग्भ्रमित क्यों है?

आज का युवा दिग्भ्रमित क्यों है?

आज के समय यदि सबसे गम्भीर समस्या कहीं देखने को मिल रही है तो वह है युवाओं में फैलती दिग्भ्रम की स्थिति। दिग्भ्रम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है दिक् और भ्रम जिसका शाब्दिक अर्थ होगा दिशा के विषय में भ्रम। यह शब्द उस स्थिति का द्योतक होता है जब हम किसी मोड़ पर खड़े होते हैं और हमें अनेक विकल्पों में से किसी एक विकल्प का चुनाव करना होता है। यहां जो सबसे ध्यान देने वाली बात है वह यह है कि यह स्थिति तभी उत्पन्न होती है जबकि हमारे पास एक ही कार्य को करने के लिए अनेक विकल्प उपस्थित हों। अब आप कहेंगे कि क्या पहले युवा ही नहीं होते थे या उनके सम्मुख समस्याएं ही नहीं होती थीं या वे किसी और मिट्टी के बने होते थे। इसका जवाब हो सकता है कि पहले के समय में युवाओं के सम्मुख इतने विकल्प नहीं होते थे जितने आज के समय में उपलब्ध हैं। विकल्प होना बहुत अच्छी बात है लेकिन तभी जब उसके बारे में अच्छी जानकारी भी उपलब्ध हो। आज के समय में हमारे अभिभावकों के पास सम्पन्नता आ गयी है लेकिन दुर्भाग्यवश उनके पास समयाभाव हो गया है। यही स्थिति हमारे गुरूजनों के साथ भी देखने को मिलती है। कृपया अन्यथा न लें किन्तु सत्य तो यही है कि हमारे अधिकांश गुरूजनों के पास कोचिंग और अन्य संस्थानों में पढ़ाने के लिए पर्याप्त समय है किन्तु उनका लक्ष्य केवल कोर्स समाप्त कराना ही रह गया है। हम गुरूजनों या अभिभावकों को दोष क्यों दें। यदि युवा अपने अन्दर झांक कर देखे तो उसे दिखाई देगा कि उसके अन्दर अब वह लगन भी नहीं रह गयी है अध्ययन के प्रति। हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि युवा अध्ययन को डिग्री प्राप्त करना समझने लगा है। परीक्षाओं को देखने से तो यही प्रतीत होता है कि पहले जहां युवा पूरी पुस्तक पढ डालता था वहीं आज वह केवल सीरीज में से केवल कुछ प्रश्न पढ़ने में ही रूचि रखता है। ऐसे में वह कैसे ज्ञान की देवी सरस्वती का कृपा पात्र बन सकता है? .........

Saturday, March 14, 2009

किस विषय पर लिखूं?

किस विषय पर लिखूं?
अपने निश्चय के मुताबित आज मैं अवश्य कुछ न कुछ लिखूंगा। लेकिन क्या लिखूंगा? फिर वही ईश्वर की दी हुई शक्ति ने उत्तर दिया विचार करो और अपने विचारों को लिखो। विचार करूं और अपने विचारों को लिखूं? लेकिन प्रश्न वहीं का वहीं रहा कि किस विषय पर विचार करूं? फिर उत्तर आया कि इसी विषय पर लिखो कि "किस विषय पर लिखूं"। बस फिर क्या था मन का घोड़ा दौड़ने लगा। कभी विचार आया कि होली का पर्व है होली पर लिखा जाय, जैसे ही यह विचार आया वैसे ही तुरन्त एक दूसरा विचार आया कि होली तो बीत गयी किसी सम-सामयिक विषय पर लिखा जाय। मन कभी इस ओर तो कभी उस ओर भाग रहा था और ठीक इसी वक्त पुन: विचार की शक्ति ने आवाज लगाई -"क्या हुआ अपनी मर्जी के विषय पर लिखने को बोला तो उस पर भी मन एकाग्रचित्त नहीं कर पा रहे हो?" यह सुनते ही मेरे दिमाग की बत्ती जली और यह ज्ञान हुआ कि यही तो योग है। मन की शक्तियों को एकाग्रचित्त करना। अरे वाह, यदि मैं नियमित ब्लागरी करूं तो योगी बन जाउंगा। अब समझ में आया कि हमारे मनीषी गुफाओं में बैठकर शायद यही अभ्यास करते थे कि मन को एकाग्रचित्त कैसे किया जाय। बिना मन को एकाग्रचित्त किये सार्थकतापूर्वक एक लाइन भी लिखना सम्भव नहीं है। हमारे पास विषयों की भरमार है हम जिस विषय पर चाहें लिख सकते हैं किन्तु हमारे मन में विचार आता है कि जो ज्यादा से ज्यादा लुभावना विषय हो उसी पर हम लिखें। इस बारे में मेरे मन में स्वामी विवेकानन्द जी से जुड़ा एक प्रसंग याद आता है जब उनके एक गुरूभाई ने ध्यान में पास स्थित कारखाने के भोंपू के शोर के कारण आ रही व्याधा का जिक्र किया तो स्वामी जी ने कहा कि क्यों नहीं तुम उस भोंपू के शोर पर ही ध्यान केन्द्रित करते? फिर क्या था वह शोर ही असीम शान्ति की अनुभूति प्रदान करने लगा। सचमुच ब्लागरी हमारे लिए एक वरदान साबित हो सकता है यदि हम इसका समुचित उपयोग अपने ध्यान और विचारों को केन्द्रित करने में कर सकें।

Tuesday, March 10, 2009

हम कहां जा रहे हैं?

हम कहां जा रहे हैं?
मेरे मित्र पवन तिवारी जी ने कल एक बड़ा ही जटिल सा प्रश्न मेरे सामने रखा। हिमांशु जी क्या कभी आपने अपने जीवन के बारे में सोचा है कि आपके जीवन का उद्देश्य क्या है, आपको कहां जाना है, जीवन का सही अर्थ क्या है? क्या आपने अपने जीवन का लक्ष्य तय कर लिया है? यदि यह प्रश्न पवन जी के अलावा किसी और ने किया होता तो मैं जीवन की एक बड़ी ही रोचक सी परिभाषा दे देता, किन्तु एक अभिन्न मित्र से मिथ्यावर्णन कैसे कर सकता था। अत: मैं चुप ही रहा। उन्होने मेरी चुप्पी से भांप लिया कि मेरी मन:स्थिति कुछ उत्तर देन की नहीं है। उन्होंने कहा कि वास्तव में यह एक कठिन प्रश्न है। हम अपने बारे में बहुत कम सोचते हैं इतिहास तो पूरा पढ़ डालते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि हमारा उद्गम और अन्त क्या है या क्या होना चाहिए। सचमुच में यह सत्य ही था और बड़ा ही जटिल प्रश्न था मेरे लिए। तब से मैं सोच रहा हूं कि सचमुच में मेरा लक्ष्य क्या है? केवल एक अच्छी नौकरी, रूपया पैसा, रूतबा या इससे हटकर कुछ और...........

Saturday, March 7, 2009

हर चौराहे पर लाश

हर चौराहे पर लाश

यह मैं क्या देख रहा हूं? हर चौराहे पर लाश! चौंक गये, लेकिन यह सत्य है। जैसे जैसे होली नजदीक आ रही है हमें हर चौराहे पर हरे-भरे फलदार वृक्षों की लाश का ढेर दिखाई दे रहा है। ये वही वृक्ष हैं जिन्होंने हमें आजीवन प्राणवायु, फल, फूल और जीवनोपयोगी अन्य सामान दिये हैं। होली तो बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व है फिर भारत में ये क्या हो रहा है। यह अत्यन्त निराशाजनक है कि हम बिना विचार किये ऐसा जघन्य पाप कर रहे है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वृक्षों और खासकर हरे-भरे वृक्षों की कटाई कर हम अच्छाई पर बुराई की विजय का संदेश फैला रहे हैं। आज के समय जिस तरह नगरीकरण बढ़ रहा है और बड़े बड़े कंक्रीट जंगल तेजी से पनप रहे हैं ऐसे में शहरों में वृक्षों की संख्या पहले ही बहुत कम रह गयी है और ऐसे में यदि यही परम्परा चलती रही तो वह दिन दूर नहीं जबकि हमारे वृक्ष खत्म हो जायेंगे और हमारे पास जमीन भी नहीं बचेगी कि हम नये वृक्ष लगा सकें। हमें इस बारे में विचार करना होगा और ऐसी परम्परा विकसित करनी होगी जो कि प्रतिवर्ष हरे-भरे वृक्षों को होली का निशाना बनने से बचा सकें।

Friday, March 6, 2009

‌मेरे पास क्या है कुछ भी तॊ नहीं दिया ऊपर वाले ने

‌मेरे पास क्या है ? कुछ भी तॊ नहीं दिया ऊपर वाले ने।
अक्सर ऎसे ही विचार हमारे मन में न जाने कहां से आते रहते हैं। जब ये विचार हमारे मन में आते रहते हैं उसी समय इन विचारॊ के सहारे ऊपर वाला हमें संदेश देता है कि मैंने तुम्हें क्या दिया है। ये जॊ तुमने सॊचा,‌ यह जॊ विचार की शक्ति है यही तुम्हारी सबसे बडी ताकत है यही सबसे बडा हथियार है जॊ मैने तुमकॊ दिया है। अरे वाह इस ऒर तॊ कभी हमारा ध्यान ही नहीं गया। सचमुच यह तॊ बडे काम की चीज है। अरे आज तक न जाने मैंने कितने विचारॊं पर बिना विचार किये ही उन्हें व्यर्थ में गवा दिया। विचार की मशीन बिना रुके बिना थके दिन रात चलती रहती है। हर समय हमारे मन में तरह तरह के विचार पनपते रहते हैं। पर क्या कभी हमने इन मुफ्त में मिले विचारॊं पर गौर किया। नहीं न। फिर हमने कैसे ऊपर वाले पर दॊष लगाना शुरू कर दिया।
विचार की शक्ति बहुत बडी शक्ति है। यह हमें निरन्तर न जाने कहां से मिलती रहती है। हम कभी इस ऒर ध्यान भी नहीं देते। आवश्यकता इस बात की है कि हम इस पर विचार करें और अपने विचारॊ कॊ सहेजना सीखें। यही प्रयास करने की शुरूआत मैने आज इस पॊस्ट के माध्यम से किया है। यह मेरा छॊटा सा ही कदम है लेकिन मुझे विश्वास है कि हर लम्बे सफर का पहला कदम छॊटा ही हॊता है। अतः मेरा यह छॊटा कदम व्यर्थ नही जायेगा और मैं निरन्तर अपने विचारॊं कॊ सहेजता रहूंगा।
जरा विचार कीजिए यदि हमारे पूर्वजॊं ने विचारॊं कॊ सहेजा न हॊता तॊ क्या हम वहां हॊते जहां आज हैं। बिल्कुल नहीं। ठीक है मैं आज से ही अपने विचारॊं कॊ सहेजना शुरू कर देता हूं। मुझे पूरा विश्वास है कि ईश्वर इस कार्य में मेरी मदद अवश्य करेगा।