Friday, July 31, 2009

अर्धकुम्भ मेला २००७, इलाहाबाद : एक संस्मरण

अर्धकुम्भ मेला २००७, इलाहाबाद : एक संस्मरण


प्रयाग, तीर्थराज प्रयाग, जो अब इलाहाबाद के नाम से जाना जाता है। वर्ष २००७ में यहां शताब्दी का पहला अर्धकुम्भ मेला लग रहा है। पूरी दुनिया की निगाहें ४००१ बीघे में बसे इस मेले पर केन्द्रित है। दिनांक ११ सितम्बर २००६ से मुझे भी कम्प्यूटर आपरेटर के रूप में इस मेले का एक अंग होने का गौरव प्राप्त हुआ।
मैं कैसे मेले का अंग बना? यह सब महज संयोग ही था। मेरी मेले में सेवा देने की कोई पूर्व योजना नहीं थी। मैंने रेडियो मुख्यालय, उ०प्र० पुलिस द्वारा आयोजित रेडियो आपरेटर पद की परीक्षा दी थी जिसके लिए मैं प्रारम्भिक और शारीरिक दक्षता परीक्षाओं में उत्तीर्ण घोषित किया गया था। मैं इस परीक्षा को लेकर काफी उत्साहित एवं आशान्वित था मेरे परिचितो ने ज्योतिषियो से विचार-विमर्श द्वारा यह पता लगवा लिया था कि मेरे नक्षत्र प्रशासनिक सेवा की ओर संकेत कर रहे हैं और उसकी समय सन् २००१ में डाले गये फार्म के सापेक्ष बुलावा पत्र आने पर सभी इसे चमत्कार की दृष्टि से देख रहे थे। दिनांक १० अगस्त २००६ को इस परीक्षा का अन्तिम चरण मुख्य परीक्षा लखनउ में आयोजित होनी थी, जिसकी तैयारियों में मैं लगा था। उसी समय मेरे मित्र, सहयोगी, शुभेच्छु श्री गुलाब सिंह चौहान जी जो कि आई०ई०आर०टी० के कर्मचारी हैं, का फोन आया, उन्होंने बताया कि मुझे किसी स्थान पर सेवा देनी है जिसके लिए आई०ई०आर०टी० के निदेशक महोदय ने मुझे बुलाया है। मैंने परीक्षाओं को देखते हुए अपनी असमर्थता जाहिर कर दी। इस पर श्री सिंह ने कहा कि मैं एक बार निदेशक महोदय से मिल अवश्य लूं।
मैं २२ जुलाई को निदेशक महोदय श्री एस०सी० रोहतगी जी से मिलने आई०ई०आर०टी० गया। वहां चौहान जी ने मेरा परिचय आपने साथी कर्मचारी श्री रावत जी से कराया और फिर रावत जी मुझे निदेशक महोदय के पास ले गये। उस समय आई०ई०आर०टी० में काउन्सलिंग चल रही थी जिसके कारण निदेशक महोदय काफी व्यस्त थे फिर भी उन्होंने मुझे समुचित समय दिया। हल्का सा परिचय जानने के बाद उन्होंने मुझसे केवल यही अपेक्षा की कि "वहां पर सभी आई०ए०एस०@पी०सी०एस० अधिकारी हैं, उनसे डिक्टेशन लेना होगा, क्या तुम कर सकोगे?" मेरे हां कहने पर उन्होंने एक पत्र लिखकर मुझे तुरन्त त्रिवेणी बांध स्थित मेला कार्यालय में सम्पर्क करने को कहा।
मैं २५ जुलाई को मेला कार्यालय पहुंच गया, सभी अजनबी चेहरे। सभी मेरी ओर और में सबकी ओर देख रहा था लेकिन जैसा कि सरकारी कार्यालयों में होता है किसी ने यह जानने की इच्छा नहीं की कि यह कौन सा अजनबी व्यक्ति कार्यालय में घुस आया है और इधर उधर सबको निहार रहा है। काफी चेहरों के परीक्षण के उपरान्त मेरी निगाहों ने एक चेहरे का चुनाव किया, मैं उनके समक्ष गया, नमस्कार करने के बाद मैंने अपने आने का कारण उनसे बताया। इस पर उन्होंने अवगत कराया कि अभी मेलाधिकारी महोदय कार्यालय में नहीं हैं मैं कुछ देर प्रतीक्षा कर लूं। फिर मैंने पाण्डेय साहब, जिनका नाम मुझे याद नहीं था, के बारे में उनसे पूंछा तो पता चला कि दोनों लोग साथ-साथ सेना के अधिकारियों के साथ किसी बैठक में गये हैं। मैंने जानकारियां प्राप्त कीं और जानकारी देने वाले सज्जन को धन्यवाद देकर प्रतीक्षा करने लगा। यह जानकारी देने वाले सज्जन श्री आशीष कुमार मिश्रा जी, सहसीलदार-करछना थे जो कि वर्तमान में प्रबन्धक, अर्धकुम्भ मेला के पद पर तैनात थे। हालांकि मुझे इस बात की जानकारी उस समय नहीं थी जब मैं उनसे सूचनाएं ले रहा था, और उनका बात करने का तरीका इतना आत्मीय था कि मुझे लगा ही नहीं कि मैं तहसीलदार साहब के सामने बैठा हूं।
लगभग २ घंटे की प्रतीक्षा के बाद मेलाधिकारी महोदय अपने कक्ष में आये। ५-१० मिनट की प्रतीक्षा के बाद मैं उनसे मिलने गया और अपने आने का कारण बताया और निदेशक महोदय द्वारा दिया गया पत्र उन्हें दिया। उन्होंने १० मिनट बाद मिलने को कहा। मैं उनके कक्ष से बाहर निकल आया।
बाहर निकलने के बाद मैंने देखा कि एक कक्ष के सामने कम्प्यूटर कक्ष लिखा हुआ था। जब मैं उस कक्ष में गया तो वहां पर श्री संजय नारायण तिवारी जी से मुलाकात हुई जो कि वहां पर कम्प्यूटर आपरेटर के पद पर तैनात थे और कुम्भ २००१ में भी सफलतापूर्वक कार्य कर चुके थे। यहां पर आपको बताते चलें कि समूह ग के सारे पद उ०प्र० शासन की ओर से अस्थायी रूप से मेला अवधि तक के लिए स्वीकृत किये गये थे। श्री तिवारी जी से बात करके कार्यालय, कार्यालय के लोगों और कार्यालय की कार्यप्रणाली के बारे में काफी जानकारी मिली। हमारा औपचारिक परिचय हुआ। संजय जी इतने मिलनसार प्रकृति के व्यक्ति हैं कि ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम मात्र ५ मिनट पहले मिले हैं।
धीरे-धीरे आधे घंटे बीत गया तो में फिर मेलाधिकारी महोदय के कक्ष में गया। तब उन्होंने मुझसे पूंछा कि तुम क्या करते हो? मैने बताया कि छात्र हूं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता हूं और साथ ही कम्प्यूटर ज्ञान की बदौलत कुछ अर्जित भी कर लेता हूं। उन्होंने आगामी परीक्षाओं के बारे में जानकारी चाही तो मैं ने बताया कि १० अगस्त को रेडियो आपरेटर की परीक्षा लखनउ में देने जाना है। यह बात सुनकर उन्होंने मुझे ११ अगस्त से कार्यालय आने की बात कहकर, परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए जाने को कहा।
उसके बाद में घर आ गया, परीक्षा की तैयारी की और परीक्षा देने के बाद फिर मेला कार्यालय गया। मेरे मन में कई तरह की शंकाएं तैर रही थीं, कई तरह के प्रश्न मन में आ रहे थे, मैं सोच रहा था कि मैं मेलाधिकारी महोदय के समक्ष उपस्थित होकर अपना क्या परिचय दूंगा, आज तो मेरे पास किसी का पत्र भी नहीं है, पता नहीं इतने बड़े अधिकारी मुझे पहचानेंगे भी या नहीं। इसी तरह की उधेड़-बुन करते हुए मैं मेलाधिकारी महोदय के कक्ष में गया। मेरे आश्चर्य की उस समय सीमा न रही जबकि उन्होंने मुझे देखते ही मुझे मेरे नाम से पुकारा। इतनी व्यस्तता, इतनी जिम्मेदारी, प्रतिदिन सैकड़ों लोगों से मिलना, इन सबके बावजूद जिस व्यक्ति से वे पन्द्रह दिन पूर्व मात्र २ मिनट के लिए मिले थे और जो कि बहुत ही मामूली सा व्यक्ति था, उस व्यक्ति को उसके नाम से सम्बोधित करना, यह बात उनकी योग्यता का स्वयं में परिचय कराती है।
मेलाधिकारी महोदय श्री प्रज्ञान राम मिश्र जी का पैतृक निवास मदरा, मकूनपुर, मेजा में है और वर्तमान में ये सोहबतियाबाग में रहते हैं। मेलाधिकारी महोदय को एक-एक बात याद थी कि मेरा नाम क्या है और मुझे किसने किस कार्य के लिए भेजा है आदि आदि। वे बिल्कुल अन्धविश्वासी नहीं है। उन्होंने मेरी नियुक्ति के पूर्व मेरी परीक्षा लेने के लिए अपने पास ही बैठे हुए अपर मेलाधिकारी डा० एस०के० पाण्डेय जी की ओर इशारा करते हुए मेरी परीक्षा लेने के लिए कहा। वे मेरे साथ कम्प्यूटर कक्ष में गये और एक पत्र डिक्टेट किया, वे बोलते गये और मैं सीधे कम्प्यूटर पर टाइप करता गया। इस प्रकार मेरी परीक्षा पूर्ण हुई और मैं सफल घोषित किया गया। दूसरे दिन से मैंने अपनी सेवाएं प्रारम्भ कर दी। धीरे-धीरे समस्त कर्मचारियों से मेरा परिचय हुआ। सभी का व्यवहार इतना मधुर एवं स्नेहपूर्ण था कि मुझे ऐसा लग ही नहीं रहा था कि मैं एक-दो दिन पूर्व ही इस कार्यालय में आया हूं।
तो ये रही मेरी अर्धकुम्भ मेला में कम्प्यूटर आपरेटर के रूप में सेवा प्रारम्भ करने की कहानी। इस ग्यारह महीने की सेवा में कई तरह के मोड़ आये बहुत सी चीजें देखने और सुनने को मिली। कभी कभी तो ऐसी चीजों का व्यावहारिक रूप भी देखने को मिला जो किताबों में लिखी बातों को बिल्कुल ही उलट था। सचमुच यह गंगा मैया की कृपा ही है जो उन्होंने मुझे व्यावहारिक ज्ञान देने के लिए अपनी शरण दी, उन्हीं के प्रताप से मेरी आस्था भी बलवती हुई और होती ही गयी और धीरे-धीरे मैं आस्तिक बनता गया।

Friday, July 3, 2009

कभी रो के मुस्कुराये कभी मुस्कुरा के रोये,

कभी रो के मुस्कुराये कभी मुस्कुरा के रोये,
याद जितनी आयी, उन्हें भुला के रोये,
एक उनका ही नाम था जिसे हजार बार लिखा,
जितना लिख के खुश हुए, उससे ज्यादा मिटा के रोए।।

Thursday, July 2, 2009

होने थे जितने खेल मुकद्दर के हो गये,

होने थे जितने खेल मुकद्दर के हो गये,
हम टूटी नाव ले समन्दर में खो गये,
खुशबू हाथों को छू के गुजर गयी
हम फूल सजा-सजा के पत्थर से हो गये।।

होठ पे दोस्ती के फसाने नहीं आते,

होठ पे दोस्ती के फसाने नहीं आते,
साहिल पे समन्दर के खजाने नहीं आते,
उड़ने दो परिन्दों को हवा में,
वापस दोस्ताने के जमाने नहीं आते।।