Thursday, May 7, 2020

नो कास्ट नो रिलीजन नो गॉड No Cast No Religion No God

''नो कास्ट नो रिलीजन नो गॉड''

दो युवाओं के द्वारा ''नो कास्ट नो रिलीजन नो गॉड'' की मुहिम को आगे बढ़ाने की सराहना की जानी चाहिए।  इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ हद तक हम समाज में व्याप्त जातिगत धर्मगत एवं पंथगत मतभेदों को मिटा सकेंगे, किंतु क्या वास्तव में यह ऐसा ही है जैसा सुनने में लगता है । 

पहले चर्चा करते हैं नो कास्ट पर । हिंदू मान्यता के अनुसार ऐसा माना जाता है कि जाति व्यवस्था ऋग्वेद कालीन है । वर्ण शब्द 'वृ' धातु से बना है जिसका तात्पर्य होता है वरण करना । प्रारंभ में यह व्यवस्था कर्म आधारित थी किंतु कालांतर में यह जन्म आधारित हो गई जो कि इस व्यवस्था का विकृत रूप कहा जा सकता है। अब यदि हम अपने दैनिक जीवन में विचार करें तो हम पाएंगे कि हम सभी अपने जीवन में वरण या वर्ग विभाजन करते हैं और हर वस्तु एवं व्यक्ति को वर्णों में विभक्त करते हैं यथा दोस्त, दुश्मन, अमीर, गरीब, रोजगार वाला, बेरोजगार, व्यापारी, भिखारी, राजनीतिक, वैज्ञानिक, अधिकारी, अधिवक्ता, शिक्षक, छात्र आदि आदि । विदेशों में भी हमें टेलर , वुड्समैन पेंटर आदि सरनेम देखने को मिलते हैं । और तो और जब हम अपने पहनने के लिए कपड़े खरीदते हैं तब भी उनका वर्ण विभाजन करते हैं , यथा यह समारोह वाला , यह रोज पहनने वाला, यह कार्यालय जाने वाला आदि । वर्ण व्यवस्था का विस्तृत स्वरूप हमें विज्ञान के क्षेत्र में आवर्त सारणी एवं जंतु वर्गीकरण के रूप में भी दिखाई देता है।

अब नो रिलिजन की चर्चा करते हैं।  हिंदू शास्त्रों के अनुसार जो धारण करने योग्य है वही धर्म है । यह धर्म की बहुत व्यापक परिभाषा है जो यह बताती है कि हम अपने जीवन में क्या धारण करते हैं । इस परिभाषा के अनुसार धर्म केवल मंदिर में जाकर यज्ञ अनुष्ठान करना नहीं है , वरन हर वह कार्य है जिसे हम संकल्प रूप में अपने जीवन में धारण करते हैं । धर्म का संबंध केवल पूजा पद्धति ना होकर हर वह क्रिया है जो किसी मत के अनुसार करणीय है । इस मान्यता के आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि हम यदि किसी धर्म को ना माने फिर भी हम धर्म विमुख न रह सकेंगे क्योंकि हर व्यक्ति जिस पेशे से जुड़ा है उस पेशे के सभी करणीय कार्य उसके धर्म का निर्माण करते हैं जैसे छात्र का छात्र धर्म , मानव का मानवता धर्म और तो और डॉक्टर ,वकील ,अभियंता ,अधिकारी ,पुलिस, कर्मचारी और सैनिक आदि का भी एक धर्म होता है जिसकी मर्यादा में रहकर उन्हे कार्य करना पड़ता है।

अब आते हैं अंतिम बिंदु यानी नो गॉड पर।  अनेक धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ईश्वर को नियंता के रूप में स्वीकार किया गया है जो इस संपूर्ण चराचर जगत का नियंत्रण करता है एवं संसार की समस्त शक्तियां ईश्वर द्वारा संचालित होती हैं। विश्व का एक वर्ग ऐसा भी है जो ईश्वर में बिल्कुल विश्वास नहीं करता फिर भी अपने जीवन की समस्त गतिविधियों को उसी प्रकार संचालित करता है जैसे एक आस्तिक व्यक्ति करता है। स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई जी ने तो नास्तिक को सबसे बड़ा आस्तिक माना है क्योंकि उसकी नास्तिकता में अटूट श्रद्धा होती है । ईश्वर को मानना या ना मानना किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अंग हो सकता है किंतु प्रायः देखा जाता है कि हर व्यक्ति किसी न किसी व्यक्ति को अपने आदर्श के रूप में स्वीकार करता है जिसके जैसा वह स्वयं बनना चाहता है और इसीलिए वह उसका अनुकरण भी करता है । यही धारणा ईश्वर का भी निर्माण करती है, ऐसा कहा जा सकता है । किंतु जब इस धारणा में अंधविश्वास, अंधानुकरण एवं अंधश्रद्धा का बोलबाला हो जाता है , तो व्यक्ति केवल अपनी ही सुनता है और अपनी ही बात सभी लोगों से मनवाना भी चाहता है और यही विकृत रूप ग्रहण कर लेती है और समाज के लिए घातक सिद्ध होती है।

सारांश रूप में हम यह कह सकते हैं कि इन दोनों युवाओं का प्रयास सराहनीय है किंतु हजारों वर्षों के अनुभव एवं ज्ञान को एक झटके में तिलांजलि दे देना क्या हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए न्याय संगत एवं हितकारी होगा इस पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। समय की मांग है कि हम जागरूक बने एवं समाज के हर व्यक्ति को जागरूक करें, जिससे कि एक ऐसे समाज का निर्माण हो सके जिसमें हर व्यक्ति को व्यक्ति की गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार मिल सके।

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