Friday, July 31, 2009

अर्धकुम्भ मेला २००७, इलाहाबाद : एक संस्मरण

अर्धकुम्भ मेला २००७, इलाहाबाद : एक संस्मरण


प्रयाग, तीर्थराज प्रयाग, जो अब इलाहाबाद के नाम से जाना जाता है। वर्ष २००७ में यहां शताब्दी का पहला अर्धकुम्भ मेला लग रहा है। पूरी दुनिया की निगाहें ४००१ बीघे में बसे इस मेले पर केन्द्रित है। दिनांक ११ सितम्बर २००६ से मुझे भी कम्प्यूटर आपरेटर के रूप में इस मेले का एक अंग होने का गौरव प्राप्त हुआ।
मैं कैसे मेले का अंग बना? यह सब महज संयोग ही था। मेरी मेले में सेवा देने की कोई पूर्व योजना नहीं थी। मैंने रेडियो मुख्यालय, उ०प्र० पुलिस द्वारा आयोजित रेडियो आपरेटर पद की परीक्षा दी थी जिसके लिए मैं प्रारम्भिक और शारीरिक दक्षता परीक्षाओं में उत्तीर्ण घोषित किया गया था। मैं इस परीक्षा को लेकर काफी उत्साहित एवं आशान्वित था मेरे परिचितो ने ज्योतिषियो से विचार-विमर्श द्वारा यह पता लगवा लिया था कि मेरे नक्षत्र प्रशासनिक सेवा की ओर संकेत कर रहे हैं और उसकी समय सन् २००१ में डाले गये फार्म के सापेक्ष बुलावा पत्र आने पर सभी इसे चमत्कार की दृष्टि से देख रहे थे। दिनांक १० अगस्त २००६ को इस परीक्षा का अन्तिम चरण मुख्य परीक्षा लखनउ में आयोजित होनी थी, जिसकी तैयारियों में मैं लगा था। उसी समय मेरे मित्र, सहयोगी, शुभेच्छु श्री गुलाब सिंह चौहान जी जो कि आई०ई०आर०टी० के कर्मचारी हैं, का फोन आया, उन्होंने बताया कि मुझे किसी स्थान पर सेवा देनी है जिसके लिए आई०ई०आर०टी० के निदेशक महोदय ने मुझे बुलाया है। मैंने परीक्षाओं को देखते हुए अपनी असमर्थता जाहिर कर दी। इस पर श्री सिंह ने कहा कि मैं एक बार निदेशक महोदय से मिल अवश्य लूं।
मैं २२ जुलाई को निदेशक महोदय श्री एस०सी० रोहतगी जी से मिलने आई०ई०आर०टी० गया। वहां चौहान जी ने मेरा परिचय आपने साथी कर्मचारी श्री रावत जी से कराया और फिर रावत जी मुझे निदेशक महोदय के पास ले गये। उस समय आई०ई०आर०टी० में काउन्सलिंग चल रही थी जिसके कारण निदेशक महोदय काफी व्यस्त थे फिर भी उन्होंने मुझे समुचित समय दिया। हल्का सा परिचय जानने के बाद उन्होंने मुझसे केवल यही अपेक्षा की कि "वहां पर सभी आई०ए०एस०@पी०सी०एस० अधिकारी हैं, उनसे डिक्टेशन लेना होगा, क्या तुम कर सकोगे?" मेरे हां कहने पर उन्होंने एक पत्र लिखकर मुझे तुरन्त त्रिवेणी बांध स्थित मेला कार्यालय में सम्पर्क करने को कहा।
मैं २५ जुलाई को मेला कार्यालय पहुंच गया, सभी अजनबी चेहरे। सभी मेरी ओर और में सबकी ओर देख रहा था लेकिन जैसा कि सरकारी कार्यालयों में होता है किसी ने यह जानने की इच्छा नहीं की कि यह कौन सा अजनबी व्यक्ति कार्यालय में घुस आया है और इधर उधर सबको निहार रहा है। काफी चेहरों के परीक्षण के उपरान्त मेरी निगाहों ने एक चेहरे का चुनाव किया, मैं उनके समक्ष गया, नमस्कार करने के बाद मैंने अपने आने का कारण उनसे बताया। इस पर उन्होंने अवगत कराया कि अभी मेलाधिकारी महोदय कार्यालय में नहीं हैं मैं कुछ देर प्रतीक्षा कर लूं। फिर मैंने पाण्डेय साहब, जिनका नाम मुझे याद नहीं था, के बारे में उनसे पूंछा तो पता चला कि दोनों लोग साथ-साथ सेना के अधिकारियों के साथ किसी बैठक में गये हैं। मैंने जानकारियां प्राप्त कीं और जानकारी देने वाले सज्जन को धन्यवाद देकर प्रतीक्षा करने लगा। यह जानकारी देने वाले सज्जन श्री आशीष कुमार मिश्रा जी, सहसीलदार-करछना थे जो कि वर्तमान में प्रबन्धक, अर्धकुम्भ मेला के पद पर तैनात थे। हालांकि मुझे इस बात की जानकारी उस समय नहीं थी जब मैं उनसे सूचनाएं ले रहा था, और उनका बात करने का तरीका इतना आत्मीय था कि मुझे लगा ही नहीं कि मैं तहसीलदार साहब के सामने बैठा हूं।
लगभग २ घंटे की प्रतीक्षा के बाद मेलाधिकारी महोदय अपने कक्ष में आये। ५-१० मिनट की प्रतीक्षा के बाद मैं उनसे मिलने गया और अपने आने का कारण बताया और निदेशक महोदय द्वारा दिया गया पत्र उन्हें दिया। उन्होंने १० मिनट बाद मिलने को कहा। मैं उनके कक्ष से बाहर निकल आया।
बाहर निकलने के बाद मैंने देखा कि एक कक्ष के सामने कम्प्यूटर कक्ष लिखा हुआ था। जब मैं उस कक्ष में गया तो वहां पर श्री संजय नारायण तिवारी जी से मुलाकात हुई जो कि वहां पर कम्प्यूटर आपरेटर के पद पर तैनात थे और कुम्भ २००१ में भी सफलतापूर्वक कार्य कर चुके थे। यहां पर आपको बताते चलें कि समूह ग के सारे पद उ०प्र० शासन की ओर से अस्थायी रूप से मेला अवधि तक के लिए स्वीकृत किये गये थे। श्री तिवारी जी से बात करके कार्यालय, कार्यालय के लोगों और कार्यालय की कार्यप्रणाली के बारे में काफी जानकारी मिली। हमारा औपचारिक परिचय हुआ। संजय जी इतने मिलनसार प्रकृति के व्यक्ति हैं कि ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम मात्र ५ मिनट पहले मिले हैं।
धीरे-धीरे आधे घंटे बीत गया तो में फिर मेलाधिकारी महोदय के कक्ष में गया। तब उन्होंने मुझसे पूंछा कि तुम क्या करते हो? मैने बताया कि छात्र हूं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता हूं और साथ ही कम्प्यूटर ज्ञान की बदौलत कुछ अर्जित भी कर लेता हूं। उन्होंने आगामी परीक्षाओं के बारे में जानकारी चाही तो मैं ने बताया कि १० अगस्त को रेडियो आपरेटर की परीक्षा लखनउ में देने जाना है। यह बात सुनकर उन्होंने मुझे ११ अगस्त से कार्यालय आने की बात कहकर, परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए जाने को कहा।
उसके बाद में घर आ गया, परीक्षा की तैयारी की और परीक्षा देने के बाद फिर मेला कार्यालय गया। मेरे मन में कई तरह की शंकाएं तैर रही थीं, कई तरह के प्रश्न मन में आ रहे थे, मैं सोच रहा था कि मैं मेलाधिकारी महोदय के समक्ष उपस्थित होकर अपना क्या परिचय दूंगा, आज तो मेरे पास किसी का पत्र भी नहीं है, पता नहीं इतने बड़े अधिकारी मुझे पहचानेंगे भी या नहीं। इसी तरह की उधेड़-बुन करते हुए मैं मेलाधिकारी महोदय के कक्ष में गया। मेरे आश्चर्य की उस समय सीमा न रही जबकि उन्होंने मुझे देखते ही मुझे मेरे नाम से पुकारा। इतनी व्यस्तता, इतनी जिम्मेदारी, प्रतिदिन सैकड़ों लोगों से मिलना, इन सबके बावजूद जिस व्यक्ति से वे पन्द्रह दिन पूर्व मात्र २ मिनट के लिए मिले थे और जो कि बहुत ही मामूली सा व्यक्ति था, उस व्यक्ति को उसके नाम से सम्बोधित करना, यह बात उनकी योग्यता का स्वयं में परिचय कराती है।
मेलाधिकारी महोदय श्री प्रज्ञान राम मिश्र जी का पैतृक निवास मदरा, मकूनपुर, मेजा में है और वर्तमान में ये सोहबतियाबाग में रहते हैं। मेलाधिकारी महोदय को एक-एक बात याद थी कि मेरा नाम क्या है और मुझे किसने किस कार्य के लिए भेजा है आदि आदि। वे बिल्कुल अन्धविश्वासी नहीं है। उन्होंने मेरी नियुक्ति के पूर्व मेरी परीक्षा लेने के लिए अपने पास ही बैठे हुए अपर मेलाधिकारी डा० एस०के० पाण्डेय जी की ओर इशारा करते हुए मेरी परीक्षा लेने के लिए कहा। वे मेरे साथ कम्प्यूटर कक्ष में गये और एक पत्र डिक्टेट किया, वे बोलते गये और मैं सीधे कम्प्यूटर पर टाइप करता गया। इस प्रकार मेरी परीक्षा पूर्ण हुई और मैं सफल घोषित किया गया। दूसरे दिन से मैंने अपनी सेवाएं प्रारम्भ कर दी। धीरे-धीरे समस्त कर्मचारियों से मेरा परिचय हुआ। सभी का व्यवहार इतना मधुर एवं स्नेहपूर्ण था कि मुझे ऐसा लग ही नहीं रहा था कि मैं एक-दो दिन पूर्व ही इस कार्यालय में आया हूं।
तो ये रही मेरी अर्धकुम्भ मेला में कम्प्यूटर आपरेटर के रूप में सेवा प्रारम्भ करने की कहानी। इस ग्यारह महीने की सेवा में कई तरह के मोड़ आये बहुत सी चीजें देखने और सुनने को मिली। कभी कभी तो ऐसी चीजों का व्यावहारिक रूप भी देखने को मिला जो किताबों में लिखी बातों को बिल्कुल ही उलट था। सचमुच यह गंगा मैया की कृपा ही है जो उन्होंने मुझे व्यावहारिक ज्ञान देने के लिए अपनी शरण दी, उन्हीं के प्रताप से मेरी आस्था भी बलवती हुई और होती ही गयी और धीरे-धीरे मैं आस्तिक बनता गया।

Friday, July 3, 2009

कभी रो के मुस्कुराये कभी मुस्कुरा के रोये,

कभी रो के मुस्कुराये कभी मुस्कुरा के रोये,
याद जितनी आयी, उन्हें भुला के रोये,
एक उनका ही नाम था जिसे हजार बार लिखा,
जितना लिख के खुश हुए, उससे ज्यादा मिटा के रोए।।

Thursday, July 2, 2009

होने थे जितने खेल मुकद्दर के हो गये,

होने थे जितने खेल मुकद्दर के हो गये,
हम टूटी नाव ले समन्दर में खो गये,
खुशबू हाथों को छू के गुजर गयी
हम फूल सजा-सजा के पत्थर से हो गये।।

होठ पे दोस्ती के फसाने नहीं आते,

होठ पे दोस्ती के फसाने नहीं आते,
साहिल पे समन्दर के खजाने नहीं आते,
उड़ने दो परिन्दों को हवा में,
वापस दोस्ताने के जमाने नहीं आते।।

Tuesday, June 30, 2009

उम्मीदों पे कभी भरोसा न करना,

उम्मीदों पे कभी भरोसा करना,
जो लम्हें बुरे लगें उन्हें सोचा करना,
कमी महसूस हो जिसकी उसका मत ख्याल करना,
खुद में खास हो आप ये हमेशा याद रखना।।

Monday, June 29, 2009

कोशिश करो कि कोई तुमसे न रूठे,

कोशिश करो कि कोई तुमसे न रूठे,
जिन्दगी में अपनों का साथ कभी न छूटे,
रिश्ता कोई भी हो उसे ऐसे निभाओ,
कि उस रिश्ते की डोर जिन्दगी भर न टूटे।।

जिन्दगी चाहत का एक सिलसिला है,

जिन्दगी चाहत का एक सिलसिला है,
कोई मिलेगा तो कोई बिछड़ जायेगा,
जिन्हें मांगते हैं हम दुवाओं में हर पल,
वो किसी और को बिन मांगे ही मिल जायेगा।।

Sunday, June 28, 2009

एक अधूरी ख्वाहिश मेरी भी पूरी हो जाये,

एक अधूरी ख्वाहिश मेरी भी पूरी हो जाये,
मुझे याद करना उसकी मजबूरी हो जाये,
या खुदा जो लोग मुझे एसएमएस न करें,
काश उनका मोबाइल चोरी हो जाये।।

Saturday, June 27, 2009

खुशबू आपकी मुझे महका जाती है,

खुशबू आपकी मुझे महका जाती है,
आपकी हर बात मुझे बहका जाती है,
सांसे तो बहुत वक्त लेती हैं आने-जाने में,
हर सांस से पहले आपकी याद आ जाती है।।

Friday, June 26, 2009

कोई किसी की याद में ऐसे नहीं रोता

कोई किसी की याद में ऐसे नहीं रोता
कोई कभी यूं ही तनहा नहीं होता
रिश्तों को सिर्फ कंजूसी ही ले डूबती है
ये जानकर भी आपसे एक एसएमएस नहीं होता।।

Wednesday, June 24, 2009

इस दुनिया में सब कुछ बिकता है,

इस दुनिया में सब कुछ बिकता है,
पर बस जुदाई रिश्वत क्यों नहीं लेती,
मरता नहीं कोई किसी से जुदा होकर,
बस यादें ही हैं जो जीने नहीं देतीं।।

Sunday, May 17, 2009

न जाने कब कौन खड़गसिंह के रूप में सामने आ जाये

जीवन अनुभव ग्रहण करने की एक प्रक्रिया है। हम जीवन-पर्यन्त अनुभव ग्रहण करते रहते हैं, उनका पुराने अनुभवों से मिलान या मूल्यांकन करते रहते हैं और यदि आवश्यकता पड़ती है तो नये मूल्यों का निर्माण करते हैं। लेकिन अक्सर होता यह है कि हमें कड़वे अनुभवों का ही चर्चायें आमतौर पर सुनने को मिलती हैं, इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हमें अच्छे अनुभव होते ही नहीं हैं बल्कि इसका कारण यह होता है कि कड़वे अनुभव हमें सीख दे जाते हैं और हमें बताते हैं कि यह अनुभव सहेज कर रख लें जिससे कि हमारी आने वाली पीढ़ी उस दर्द से बची रह सके जिसे हमने झेला है। हम अक्सर अपने कड़वे अनुभव ही आपस में साझा करते हैं इस बात में मुझे बाबा भारती और डाकू खड़गसिंह की पुरानी कहानी याद आती है जिसमें डाकू खड़गसिंह एक बीमार व्यक्ति का भेष धर कर बाबा भारती का प्यारा घोड़ा हथिया लेता है। बाबा भारती के ये कथन कि "घोड़ा तो ले जाओ लेकिन इस बात की चर्चा किसी से न करना, नहीं तो लोगों का दु:खी और असहायों की सहायता करने से विश्वास उठ जायेगा।" इतने असरकारी साबित हुए कि डाकू खड़गसिंह का हृदय परिवर्तित हो गया उसने घोड़ा भी लौटा दिया और भिक्षु बन गया। बाबा भारती के शब्द पर हमें आज के समय में विचार करने की आवश्यकता है। हमें आवश्यकता है कि हम अपने अनुभव साझा करते समय इस बात का भी ख्याल रखें कि इसका क्या परिणाम होगा। कहीं ऐसा न हो कि हमारा यह अनुभव चारो तरफ अविश्वास के ही बीज-वपन करने लगे। हमारे समाचार माध्यमों की खबरों से अक्सर ऐसे "ज्ञान" अथवा "अनुभव" सामने आते हैं जो कि हमें अपने रिश्तों को शक की निगाह से देखने को मजबूर कर देते हैं। क्या ऐसा अनुभव साझा करना हमें एक अच्छे भविष्य की ओर ले जायेगा? अगर बाबा भारती दरवाजे-दरवाजे जाकर अपना दुखड़ा रोते तो उनका घोड़ा तो उन्हें कभी न मिलता लेकिन लोग यह शिक्षा जरूर ग्रहण कर लेते कि कभी किसी गरीब-दुखिया की मदद न करो न जाने कब कौन खड़गसिंह के रूप में सामने आ जाये।

Friday, May 15, 2009

जीवन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जीवन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। आदमी जन्म के पालने से लेकर मृत्यु-शय्या तक शिक्षा ग्रहण करता रहता है। अलग-अलग विद्वानों ने शिक्षा के अलग-अलग विभाग किये हैं किन्तु प्रमुखत: शिक्षा दो तरह की हो सकती है, एक तो औपचारिक जो कि एक पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार निर्धारित पाठ्यक्रम और निर्धारित समय-सीमा के अन्तर्गत दी जाती है, तथा दूसरी अनौपचारिक शिक्षा जिसे कि व्यक्ति कहीं भी किसी से भी कभी भी ग्रहण कर सकता है। जैसे कि एक कहानी में एक पराजित राजा ने मकड़ी से शिक्षा ग्रहण की और अन्तत: विजयी हुआ। यह जो बड़े-बड़े ग्रन्थ हैं जिन्हें बड़े-बड़े विद्वानों ने लिखा है यह भी अनुभवों का संकलन मात्र है जिसका हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में शिक्षा के माध्यम से होता है। इन ग्रन्थों का प्रयोजन यही होता है कि हमारी आने वाली पीढ़ी को वह दु:ख न सहने पड़ें जो कि अज्ञानतावश उन्होंने सहे हैं। किन्तु वर्तमान में यदि हम अपना अवलोकन करें तो हमारी मानसिकता ऐसी हो गयी है जिसमें हम पुराने अनुभवों से सीख न लेकर उस विषय पर खुद से प्रयोग करके सीखने का प्रयास करते हैं। यह अच्छी बात है किन्तु इसकी हानि भी बहुत है। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि इसमें एक तो हमारा कीमती समय बर्बाद होता है साथ ही साथ कभी-कभी हम केवल प्रयोग के उपकरण मात्र बनकर रह जाते हैं या कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि हम एक प्रायोगिक श्रृंखला के सदस्य बनजाने के कारण प्रयोग के बाद अगले प्रयोग में फंसते जाते हैं और अपने जीवन को नष्ट कर देते हैं। इतना सबकुछ जानने के बाद भी हम खुद से प्रयोग करने में ही ज्यादा आस्था रखते हैं।

Saturday, March 28, 2009

क्या युवाओं को व्यायाम की आवश्यकता नहीं......

अभी मैं एक प्रतिष्ठित टी०वी० चैनल पर योगाभ्यास का कार्यक्रम देख रहा था। उस योगाभ्यास कार्यक्रम में अनेकानेक वरिष्ठ नागरिक लाभान्वित हो रहे थे। मुझे यह देखकर काफी निराशा भी हुई और आश्चर्य भी कि उस कार्यक्रम में एक भी युवा योगाभ्यास नहीं कर रहा था। यह स्थिति केवल उस टी०वी० चैनल की ही नहीं है वरन हमारे चारो ओर देखने को मिल जाता है। जब मैं सुबह टहलने के लिए निकलता हूं तो टहलने वालों में सबसे अधिक संख्या उनकी होती है जो अभी हाल ही में सेवानिवृत्त हुए हैं और जैसे-जैसे हम कम उम्र के लोगों की ओर बढ़ते जाते हैं संख्या आश्चर्यजनक रूप से कम होती जाती है। स्थिति यह है कि १८-२० वर्ष आयु के युवा बहुत ढूढने के बाद कहीं दिख जाते हैं।
यह स्थिति अत्यन्त निराशाजनक है। कहा जाता है कि उपचार से बेहतर परहेज है। व्यायाम के महत्व को युवा संन्यासी स्वामी विवेकानन्द जी ने स्वीकार करते हुए कहा था कि युवाओं को खूब व्यायाम करना चाहिए क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रहता है। बिना स्वस्थ मस्तिष्क के कोई भी कार्य नहीं किया जा सकता। फिर हमारे युवा के मन में यह छोटी सी बात क्यों नहीं आ रही है। अरे भाई क्या बतायें समय ही नहीं मिलता। समय नहीं मिलता या हम समय नहीं निकालते या साफ-साफ कहें तो समय का प्रबन्धन ठीक ढंग से नहीं कर पाते। एक प्रश्न और हमेशा मन में गूंजता है कि पहले का युवा कितना अलमस्त रहता था वह हर चीज में बढ-चढ कर हिस्सा लेता था और हर क्षेत्र में उसकी उपलब्धि देखी जा सकती है। पह पढ़ाई भी करता था और अच्छा खिलाड़ी हुआ करता था और यदि बात देशभक्ति की आ जाये तो जान देने को भी तैयार रहता था। ये सारे गुण आज के युवा में कम होते हुए से प्रतीत हो रहे हैं। हमारा आज का युवा व्यस्त अधिक हो गया है लेकिन आउटपुट कुछ देखने को नहीं मिल रहा है। यह तो वही बात हुई कि "बिजी विदाउट बिजिनेस"। इस स्थिति से हमारा युवा भी काफी निराश, हताश और परेशान है। उसे कोई राह दिखाई नहीं दे रही है, वह क्या करे, कहां जाये...... कोई है जो उसे सही राह दिखा सके.......... चिट्ठाजगत से गुहार है कोई उसकी मदद करे

Thursday, March 19, 2009

मां की डांट से क्षुब्ध बालक ने जान दी



इस तरह की ना जाने कितनी ही खबरें हम आये दिन समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं। पहले इस तरह की घटनाएं कम होती थी और आज ज्यादा हो रही है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। ऐसा भी हो सकता है कि पहले इन घटनाओ की जानकारी का क्षेत्र इतना व्यापक न था जितना आज का है। इस हेतु मीडिया के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
मां की डांट क्या इतनी कड़वी हो सकती है कि बालक जान देने पर उतारू हो जाय? पहले मुझे ऐसे पाल्यों पर तरस आता था जो ऐसी हरकत करके ईश्वर का खूबसूरत उपहार जीवन को ठुकराते थे। लेकिन कभी-कभी जीवन में ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हो सकती है जबकि हमारा दिमाग काम करना बन्द कर दे और हम गलत कदम उठाने पर मजबूर हो जायें। अक्सर ऐसा होता है कि हम अपने अपनों से आवश्यकता से अधिक की अपेक्षा रखते हैं। यह स्थिति पालक और पाल्य दोनों के साथ होती है। जब मेरी मां ने मुझे खरी-खोटी सुनाई तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरा इस संसार में अब कोई रहा ही नहीं। जब अपनी मां जिसने मुझे जन्म दिया वह ऐसी बातें कह रही है तो ठीक है मैं उससे बहुत दूर चला जाउंगा। शायद वह अकेले ही रहना चाहती हैं तो ले-लें अपना राज-पाट, मुझे नहीं रहना है इनके साथ। दूसरे के मां-बाप अपने बच्चों के लिए क्या-क्या नहीं करते। मैंने कभी कोई नाजायज मांग भी नहीं की। फिर भी मुझे सबके सामने जलील करने का प्रयास किया जा रहा है। शायद मेरी मां मुझसे उब गयी है। यदि यही सच है तो मैं खुद ही उससे दूर चला जाता हूं जिससे कि वह खुश रहे........
इस तरह के न जाने कितने ही विचार एक ही सेकेण्ड के अन्दर मन में आ जाते हैं और दिमाग के सर्वर को डाउन करने पर तुल जाते है, यदि इस समय आपका सर्वर डाउन हो गया यानि की विचार चेतना ने साथ छोड़ दिया तो घर से बहुत-बहुत दूर जाने का विचार मन में आता है और लोग गलत कदम उठाते हैं।
किंतु यदि इसी बात को मां के पक्ष से सोचा जाय तो ..... तो क्या हम इस तरह का निर्णय (घर@दुनिया छोडने का निर्णय) लेते समय उस मां के दर्द का अनुमान लगा पाते हैं, जो कि अपने बच्चे के जन्म के लिए कितने दुख झेलती है, कहा जाता है कि जब एक बच्चा जन्म लेता है तो मां का दूसरा जन्म होता है, जिस मां ने अपने बच्चे को एक-एक पल अपनी आंखों के सामने बढ़ते हुए देखा है यदि बुढ़ापे में उसका बच्चा उससे छीन लिया जाय, या बच्चा उसे छोड़कर चला जाय तो उस मां की स्थिति क्या होती होगी इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता, उसके लिए उस समय तो यही स्थिति होती है कि उसका सर्वस्व लुट गया।
उसका सर्वस्व लुटे तो लुटे मुझे क्या। मुझे तो सारे समाज के सामने उसी ने जलील किया और घर छोड़ने पर मजबूर किया। जब घर छुड़ाया है तो संतानहीन होने का सुख भोगे घर में अकेले रहे।
एक संतानहीन औरत के लिए संतान का न होना सहा जा सकता है किन्तु सन्तान के होते हुए संतान का बिछोह किसी मां के लिए सहनीय नहीं है। वह जीते-जी मर जाती है। लेकिन प्रकृति ने उसे शक्ति दी है जिसके बलबूते पर वह सबकुछ शान्त होकर सारे आरोप प्रत्यारोप अपने उपर लेते हुए चुपचाप सबकुछ सह जाती है।
मां ने बुरा भला कहा, पर क्यों? क्योंकि वह आपसे प्यार नहीं करती। बिल्कुल गलत। वह आपको बहुत चाहती है। अगर आपको कोई तकलीफ होती है तो पहले दर्द मां हो होता है। फिर उसने बुरा भला क्यों कहा? उसने केवल आपकी भलाई के लिए ही अपने कलेजे पर पत्थर रखकर आपको भला-बुरा कहा। मेरी भलाई के लिए, भला वह कैसे? कोई भी मां अपने बच्चे से अलग नहीं रह सकती। लेकिन जब मां देखती है कि घर, परिवार एवं समाज की परिस्थितियां कितनी बदलती जा रही है, ऐसे में यदि आप मां के आंचल (आश्रय) में ही रह गये और खुद अपने आप अपने बारे में विचार करना शुरू न किया तो आने वाले समय में आपको कौन सम्भालेगा (मां के न रहने पर)। वह केवल आपकी खुशी के लिए आपसे दिखावा करती है कि वह आपको नहीं चाहती, वह आपसे खिन्न है, किन्तु उसकी उस समय स्थिति क्या होती है यह एक मां ही समझ सकती है।
मां की डांट में छिपी उसकी भावना की कद्र करना हर संतान का कर्तव्य है। अपनी मां के दुख को समझिये और उसे जीवन भर के लिए दुखी करने वाला कष्ट न दीजिये। आखिर उसने आपको जन्म दिया है और कहा भी गया है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान होती है। उसके ऋण से कोई भी उऋण नहीं हो सकता।

Monday, March 16, 2009

आज का युवा दिग्भ्रमित क्यों है?

आज का युवा दिग्भ्रमित क्यों है?

आज के समय यदि सबसे गम्भीर समस्या कहीं देखने को मिल रही है तो वह है युवाओं में फैलती दिग्भ्रम की स्थिति। दिग्भ्रम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है दिक् और भ्रम जिसका शाब्दिक अर्थ होगा दिशा के विषय में भ्रम। यह शब्द उस स्थिति का द्योतक होता है जब हम किसी मोड़ पर खड़े होते हैं और हमें अनेक विकल्पों में से किसी एक विकल्प का चुनाव करना होता है। यहां जो सबसे ध्यान देने वाली बात है वह यह है कि यह स्थिति तभी उत्पन्न होती है जबकि हमारे पास एक ही कार्य को करने के लिए अनेक विकल्प उपस्थित हों। अब आप कहेंगे कि क्या पहले युवा ही नहीं होते थे या उनके सम्मुख समस्याएं ही नहीं होती थीं या वे किसी और मिट्टी के बने होते थे। इसका जवाब हो सकता है कि पहले के समय में युवाओं के सम्मुख इतने विकल्प नहीं होते थे जितने आज के समय में उपलब्ध हैं। विकल्प होना बहुत अच्छी बात है लेकिन तभी जब उसके बारे में अच्छी जानकारी भी उपलब्ध हो। आज के समय में हमारे अभिभावकों के पास सम्पन्नता आ गयी है लेकिन दुर्भाग्यवश उनके पास समयाभाव हो गया है। यही स्थिति हमारे गुरूजनों के साथ भी देखने को मिलती है। कृपया अन्यथा न लें किन्तु सत्य तो यही है कि हमारे अधिकांश गुरूजनों के पास कोचिंग और अन्य संस्थानों में पढ़ाने के लिए पर्याप्त समय है किन्तु उनका लक्ष्य केवल कोर्स समाप्त कराना ही रह गया है। हम गुरूजनों या अभिभावकों को दोष क्यों दें। यदि युवा अपने अन्दर झांक कर देखे तो उसे दिखाई देगा कि उसके अन्दर अब वह लगन भी नहीं रह गयी है अध्ययन के प्रति। हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि युवा अध्ययन को डिग्री प्राप्त करना समझने लगा है। परीक्षाओं को देखने से तो यही प्रतीत होता है कि पहले जहां युवा पूरी पुस्तक पढ डालता था वहीं आज वह केवल सीरीज में से केवल कुछ प्रश्न पढ़ने में ही रूचि रखता है। ऐसे में वह कैसे ज्ञान की देवी सरस्वती का कृपा पात्र बन सकता है? .........

Saturday, March 14, 2009

किस विषय पर लिखूं?

किस विषय पर लिखूं?
अपने निश्चय के मुताबित आज मैं अवश्य कुछ न कुछ लिखूंगा। लेकिन क्या लिखूंगा? फिर वही ईश्वर की दी हुई शक्ति ने उत्तर दिया विचार करो और अपने विचारों को लिखो। विचार करूं और अपने विचारों को लिखूं? लेकिन प्रश्न वहीं का वहीं रहा कि किस विषय पर विचार करूं? फिर उत्तर आया कि इसी विषय पर लिखो कि "किस विषय पर लिखूं"। बस फिर क्या था मन का घोड़ा दौड़ने लगा। कभी विचार आया कि होली का पर्व है होली पर लिखा जाय, जैसे ही यह विचार आया वैसे ही तुरन्त एक दूसरा विचार आया कि होली तो बीत गयी किसी सम-सामयिक विषय पर लिखा जाय। मन कभी इस ओर तो कभी उस ओर भाग रहा था और ठीक इसी वक्त पुन: विचार की शक्ति ने आवाज लगाई -"क्या हुआ अपनी मर्जी के विषय पर लिखने को बोला तो उस पर भी मन एकाग्रचित्त नहीं कर पा रहे हो?" यह सुनते ही मेरे दिमाग की बत्ती जली और यह ज्ञान हुआ कि यही तो योग है। मन की शक्तियों को एकाग्रचित्त करना। अरे वाह, यदि मैं नियमित ब्लागरी करूं तो योगी बन जाउंगा। अब समझ में आया कि हमारे मनीषी गुफाओं में बैठकर शायद यही अभ्यास करते थे कि मन को एकाग्रचित्त कैसे किया जाय। बिना मन को एकाग्रचित्त किये सार्थकतापूर्वक एक लाइन भी लिखना सम्भव नहीं है। हमारे पास विषयों की भरमार है हम जिस विषय पर चाहें लिख सकते हैं किन्तु हमारे मन में विचार आता है कि जो ज्यादा से ज्यादा लुभावना विषय हो उसी पर हम लिखें। इस बारे में मेरे मन में स्वामी विवेकानन्द जी से जुड़ा एक प्रसंग याद आता है जब उनके एक गुरूभाई ने ध्यान में पास स्थित कारखाने के भोंपू के शोर के कारण आ रही व्याधा का जिक्र किया तो स्वामी जी ने कहा कि क्यों नहीं तुम उस भोंपू के शोर पर ही ध्यान केन्द्रित करते? फिर क्या था वह शोर ही असीम शान्ति की अनुभूति प्रदान करने लगा। सचमुच ब्लागरी हमारे लिए एक वरदान साबित हो सकता है यदि हम इसका समुचित उपयोग अपने ध्यान और विचारों को केन्द्रित करने में कर सकें।

Tuesday, March 10, 2009

हम कहां जा रहे हैं?

हम कहां जा रहे हैं?
मेरे मित्र पवन तिवारी जी ने कल एक बड़ा ही जटिल सा प्रश्न मेरे सामने रखा। हिमांशु जी क्या कभी आपने अपने जीवन के बारे में सोचा है कि आपके जीवन का उद्देश्य क्या है, आपको कहां जाना है, जीवन का सही अर्थ क्या है? क्या आपने अपने जीवन का लक्ष्य तय कर लिया है? यदि यह प्रश्न पवन जी के अलावा किसी और ने किया होता तो मैं जीवन की एक बड़ी ही रोचक सी परिभाषा दे देता, किन्तु एक अभिन्न मित्र से मिथ्यावर्णन कैसे कर सकता था। अत: मैं चुप ही रहा। उन्होने मेरी चुप्पी से भांप लिया कि मेरी मन:स्थिति कुछ उत्तर देन की नहीं है। उन्होंने कहा कि वास्तव में यह एक कठिन प्रश्न है। हम अपने बारे में बहुत कम सोचते हैं इतिहास तो पूरा पढ़ डालते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि हमारा उद्गम और अन्त क्या है या क्या होना चाहिए। सचमुच में यह सत्य ही था और बड़ा ही जटिल प्रश्न था मेरे लिए। तब से मैं सोच रहा हूं कि सचमुच में मेरा लक्ष्य क्या है? केवल एक अच्छी नौकरी, रूपया पैसा, रूतबा या इससे हटकर कुछ और...........

Saturday, March 7, 2009

हर चौराहे पर लाश

हर चौराहे पर लाश

यह मैं क्या देख रहा हूं? हर चौराहे पर लाश! चौंक गये, लेकिन यह सत्य है। जैसे जैसे होली नजदीक आ रही है हमें हर चौराहे पर हरे-भरे फलदार वृक्षों की लाश का ढेर दिखाई दे रहा है। ये वही वृक्ष हैं जिन्होंने हमें आजीवन प्राणवायु, फल, फूल और जीवनोपयोगी अन्य सामान दिये हैं। होली तो बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व है फिर भारत में ये क्या हो रहा है। यह अत्यन्त निराशाजनक है कि हम बिना विचार किये ऐसा जघन्य पाप कर रहे है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वृक्षों और खासकर हरे-भरे वृक्षों की कटाई कर हम अच्छाई पर बुराई की विजय का संदेश फैला रहे हैं। आज के समय जिस तरह नगरीकरण बढ़ रहा है और बड़े बड़े कंक्रीट जंगल तेजी से पनप रहे हैं ऐसे में शहरों में वृक्षों की संख्या पहले ही बहुत कम रह गयी है और ऐसे में यदि यही परम्परा चलती रही तो वह दिन दूर नहीं जबकि हमारे वृक्ष खत्म हो जायेंगे और हमारे पास जमीन भी नहीं बचेगी कि हम नये वृक्ष लगा सकें। हमें इस बारे में विचार करना होगा और ऐसी परम्परा विकसित करनी होगी जो कि प्रतिवर्ष हरे-भरे वृक्षों को होली का निशाना बनने से बचा सकें।

Friday, March 6, 2009

‌मेरे पास क्या है कुछ भी तॊ नहीं दिया ऊपर वाले ने

‌मेरे पास क्या है ? कुछ भी तॊ नहीं दिया ऊपर वाले ने।
अक्सर ऎसे ही विचार हमारे मन में न जाने कहां से आते रहते हैं। जब ये विचार हमारे मन में आते रहते हैं उसी समय इन विचारॊ के सहारे ऊपर वाला हमें संदेश देता है कि मैंने तुम्हें क्या दिया है। ये जॊ तुमने सॊचा,‌ यह जॊ विचार की शक्ति है यही तुम्हारी सबसे बडी ताकत है यही सबसे बडा हथियार है जॊ मैने तुमकॊ दिया है। अरे वाह इस ऒर तॊ कभी हमारा ध्यान ही नहीं गया। सचमुच यह तॊ बडे काम की चीज है। अरे आज तक न जाने मैंने कितने विचारॊं पर बिना विचार किये ही उन्हें व्यर्थ में गवा दिया। विचार की मशीन बिना रुके बिना थके दिन रात चलती रहती है। हर समय हमारे मन में तरह तरह के विचार पनपते रहते हैं। पर क्या कभी हमने इन मुफ्त में मिले विचारॊं पर गौर किया। नहीं न। फिर हमने कैसे ऊपर वाले पर दॊष लगाना शुरू कर दिया।
विचार की शक्ति बहुत बडी शक्ति है। यह हमें निरन्तर न जाने कहां से मिलती रहती है। हम कभी इस ऒर ध्यान भी नहीं देते। आवश्यकता इस बात की है कि हम इस पर विचार करें और अपने विचारॊ कॊ सहेजना सीखें। यही प्रयास करने की शुरूआत मैने आज इस पॊस्ट के माध्यम से किया है। यह मेरा छॊटा सा ही कदम है लेकिन मुझे विश्वास है कि हर लम्बे सफर का पहला कदम छॊटा ही हॊता है। अतः मेरा यह छॊटा कदम व्यर्थ नही जायेगा और मैं निरन्तर अपने विचारॊं कॊ सहेजता रहूंगा।
जरा विचार कीजिए यदि हमारे पूर्वजॊं ने विचारॊं कॊ सहेजा न हॊता तॊ क्या हम वहां हॊते जहां आज हैं। बिल्कुल नहीं। ठीक है मैं आज से ही अपने विचारॊं कॊ सहेजना शुरू कर देता हूं। मुझे पूरा विश्वास है कि ईश्वर इस कार्य में मेरी मदद अवश्य करेगा।